भू-अधिग्रहण विधेयक पर मंत्रियों की मुहर

केंद्रीय मंत्रियों के समूह ने विवादास्पद भूमि अधिग्रहण कानून के अंतिम मसौदे को हरी झंडी दे दी है.

केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार की अध्यक्षता में हुई मंत्रियों के समूह की बैठक में ये फैसला किया गया है. अब इस मसौदे को मंत्रिमंडल में भेजा जाएगा.

बैठक के बाद पत्रकारों को संबोधित करते हुए शरद पवार ने कहा, “हमने विधेयक का अंतिम मसौदा तैयार कर लिया है, हम हर उस मुद्दे पर कुछ सहमति बनाने में कामयाब रहे जिसपर अलग-अलग विचार थे.”

लेकिन भूमि अधिग्रहण कानून जिस रूप में अब पेश किया जा रहा है उसे लेकर किसानों और किसान संगठनों में कई आशंकाएँ पैदा हो गई हैं.

पिछले साल तैयार किए गए मसौदे की कई धाराओं को नए मसौदे से या तो पूरी तरह हटा दिया गया है या फिर उन्हें बहुत हद तक कमज़ोर कर दिया गया है.

किसका हित?

पिछले मसौदे में स्पष्ट तौर पर कहा गया था कि जब तक 80 प्रतिशत भूमि मालिक अधिग्रहण पर राजी नहीं होते तब तक सरकार किसानों की जमीन नहीं लेगी. लेकिन औद्योगिक लॉबी की ओर से विरोध किए जाने के बाद इसमें बदलाव कर दिया गया है.

ताजा मसौदे में प्रावधान है कि अगर 66 प्रतिशत किसान राजी हो जाते हैं तो सरकार जमीन का अधिग्रहण कर सकती है.

विवाद का एक मुद्दा ये भी है कि निजी उद्योगों के लिए किसानों की ज़मीन अधिग्रहीत करने में सरकार को कितनी भूमिका अदा करनी चाहिए.

आनंद शर्मा और जयपाल रेड्डी जैसे मंत्री चाहते हैं कि सरकार इस मुद्दे पर निजी कंपनियों को मदद करे लेकिन रक्षामंत्री एके एंटनी का विचार है कि सरकार को निजी कंपनियों की मदद नहीं करनी चाहिए.

सरकार की भूमिका

जन संगठनों की भी माँग रही है कि सरकार को निजी उद्योगपतियों के एजेंट के तौर पर काम नहीं करना चाहिए.

ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने ग्रामीण विकास मंत्रालय का पदभार ग्रहण करने के तुरंत बाद भूमि अधिग्रहण विधेयक का मसौदा बहस के लिए जारी किया था.

उसके बाद उद्योग और बिजनेस लॉबी की ओर से इसकी काफी आलोचना की गई.

फिर विधेयक के मसौदे में काफी बदलाव किए गए. कुछ समय पहले जयराम रमेश ने स्वीकार किया कि विधेयक में बदलाव इसलिए किए गए क्योंकि ये कहा जा रहा था कि ये विधेयक किसानों के पक्ष में है और उद्योगों के खिलाफ.

उन्होंने यहाँ तक कहा कि अगर देश की अर्थव्यवस्था में नौ प्रतिशत की दर से वार्षिक प्रगति हो रही होती तो शायद मैं अपने विचार नहीं बदलता, लेकिन मौजूदा आर्थिक वातावरण को देखते हुए हमें निवेशकों को माफिक आने वाला भूमि अधिग्रहण विधेयक लाना होगा.

किसान आंदोलन

पिछले कुछ वर्षों से देश के कई हिस्सों में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ किसानों के आंदोलन हुए हैं.

दिल्ली के पास ग्रेटर नोएडा के भट्टा-पारसौल गाँवों में अपनी जमीनें बचाने के लिए शांतिपूर्ण धरना दे रहे किसानों पर 2011 में हुई पुलिस गोलीबारी के बाद से ज़मीन का मामला राष्ट्रीय स्तर पर छा गया.

काँग्रेस महासचिव राहुल गाँधी ने भट्टा-पारसौल से पदयात्रा की और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों से संवाद कायम किया, हालाँकि काँग्रेस पार्टी को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में इसका बहुत फायदा नहीं हुआ.

विधेयक के पुराने मसौदे में कहा गया था कि ऐसी जमीनों को अधिग्रहीत नहीं किया जाएगा जिसमें कई फ़सलें उगाई जाती हों, पर नए मसौदे में इसे बदल दिया गया है और कहा गया है कि ”खाद्य सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए ऐसी ज़मीनों को आखिरी स्थिति में ही अधिग्रहीत किया जाएगा जिसमें कई फ़सलें होती हैं.”

भू-अधिग्रहण विधेयक पर हुई बहस में हिस्सा लेने वाले कार्यकर्ता और कृषि मामलों के जानकार मानते हैं कि 1894 में जब अँग्रेजों ने विधेयक बनाया था तब जमीन को “सार्वजनिक कार्यों” जैसे सड़क, अस्पताल, स्कूल आदि बनाने के लिए लिया जाता था.

लेकिन बाद में निजी उद्योगों को लगाने के लिए जमीन अधिग्रहीत की जाने लगी और इस काम में सरकार उद्योगपतियों की मदद करने सामने आई.

वकील और सामाजिक कार्यकर्ता सुदीप श्रीवास्तव कहते हैं कि सस्ती लेबर की सप्लाई बरकरार रखने के लिए किसानों को उनकी जमीन से बेदखल किया जा रहा है.

उन्होंने कहा, “एक तो कम से कम कीमत पर जमीन मिले. दूसरे किसान को मुनाफे में हिस्सा न मिले. मैं मानता हूँ कि ये साजिश है ताकि आप सस्ती लेबर हासिल करते रहें. भारत दुनिया भर में कहता है कि हमारे यहाँ मजदूर सस्ते मिलते हैं. मेरा आरोप है कि सस्ती लेबर को बरकरार रखने के लिए ही किसानों को उनकी जमीनों से बेदखल किया जा रहा है.”

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