कल-कल करते, बहते-बहते सागर में समा जाना तो नदियों की नियति है पर, आज इन आंखों ने स्वयं सागर को पावन नदियों के संगम में समाते देखा। यह चमत्कार साकार था तीर्थराज प्रयाग के संगम तट पर ठाठे मारते उस अथाह जनप्रवाह के रूप में जो महाकुंभ की शुभ संक्रांति बेला में त्रिवेणी की पावन धारा में पुण्य की डुबकी लेने उमड़ पड़ा था।
त्रिविधि ताप-पाप नाशिनी त्रिवेणी के आंचल में कुछ पलों की ही पनाह पाने को आतुर इस जन सिंधु की उत्ताल तरंगों के संगम की धार में लीन होने का यह दृश्य किसी के लिए सिर्फ एक रेला था। किसी के लिए आस्था और श्रद्धा का मेला, पर जिस किसी ने भी थोड़ ठिठक कर इस अद्भुत घटना को महसूस करने की कोशिश की उसके लिए यह धर्म-अध्यात्म और दर्शन की एक अनूठी परिभाषा से साक्षात्कार के ऐतिहासिक अवसर से कम महत्वपूर्ण न था।
अलग-अलग लहरों के अलग-अलग रंग, अलग-अलग व्याख्याएं अलहदा तर्को के संग। कुछ लहरें थीं, ऐसी जो राष्ट्रीय एकता का संदेश लेकर गंगा की धार में समाहित हुई। इन लहरों में क्या उत्तर प्रदेश और क्या बिहार, क्या गुजरात और क्या मारवाड़ एक ध्येय, एक लक्ष्य एक मन और एक प्राण। कर्नाटक के उडिपी से आए मेटाफिजिक्स के अवकाशप्राप्त प्रोफेसर एमवी किणी को गुजराती नहीं आती, मगर राजकोट से कुंभ स्नान की लालसा लेकर व्हील चेयर के सहारे यहां तक पहुंची रमा बेन ने बंधे की ढलान पर जब उन्हें मदद के लिए आवाज दी तो चेयर को संभालने में प्रोफेसर को एक पल की देर नहीं लगी। इन्हीं लहरों में अलग से पहचान में आ रही थीं, वे लहरें भी जो समरसता के प्रतीक पुरुष श्रीकृष्ण के गांव को चौगोठती हुई यहां तक पहुंची यमुना की धार में जा समाईं।
इनकी हर कुलांच के साथ अमीरी -गरीबी और जाति-पांति की तमाम मान्यताएं बूंद-बूंद बिखर कर रत्ती-रत्ती राई-राई हो गई। मुलाकात होती है बांस-बल्ली से बनाए गए वाच टॉवर के नीचे बिछी प्लास्टिक शीट पर ठंड से किंकुरते-ठिठुरते किंतु दत्त चित्त गांव के भोला भगत का झोला अगोरते झांसी के तिवारी जी से। सजगता ऐसी मानों कोई माल-असबाब नहीं भरोसा अगोर रहे हों। काश हम भी तिवारी बाबा की तरह ही समरसता के इस भरोसे की पहरेदारी कर पाए होते। और. तीसरे तरह की वे लहरें जों राग-विराग के संगम को लेकर शायद लुप्त सरस्वती की ओर अग्रसर। इन लहरों में एक तरफ वीतराग संन्यासी और दूसरी तरफ दुनियादारी को समर्पित बेचारे गृहवासी मगर दोनों ही एक-दूसरे को पूरकता प्रदान करते हुए।
एक को पुण्य बचाने की लालसा तो दूसरे को पुण्य पाने की। संगम का यह पुण्य स्नान दोनों का ही मनोरथ पुरावे इस कामना के साथ पयान कुंभ डेरे की ओर।