बिहार में बनी ईरानियों की बस्ती

बिहार में जहां से बंगाल की सीमा छूने लगती है, वहीं एक बस्ती है जहां सिर्फ और सिर्फ ईरानी मूल के लोग रहते हैं. ज़ाहिर है इस बस्ती का नाम है-ईरानी बस्ती.

मुगल काल में ईरान के शिराज शहर से कुछ लोग बिहार के किशनगंज भी आए थे. उन्हीं के वंशज अब यहां के मोतीबाग करबला में रह रहे हैं.

भले ही उनके वशंज सैकड़ों साल पहले यहां आए थे लेकिन इस बस्ती में अब भी ईरान की खुशबू को महसूस किया जा सकता है. ये बस्ती जो आज भी कबायली संस्कृति में रची बसी है.

शिया वक्फ बोर्ड की करीब 13 बीघा जमीन पर यह ईरानी बस्ती है. यहां रहने वाले लोगों का मुख्य पेशा शीशा और पत्थरों का कारोबार है. आंखों का चश्मा हो या फिर आपकी अंगूठी में चमकने वाला पत्थर लगाने का काम, कारीगर ईरानी होंगे.

बस्ती में रहने वाले शब्बीर हुसैन कहते हैं, “आप हमको इंडियन ईरानी कहिए. हम हिंदी तो बोल ही सकते हैं. आपसे बांग्ला में भी बात कर सकते हैं लेकिन हम सब घर में फारसी ही बोलते हैं. यह बोली ही हमें ईरानी होने का अहसास दिलाती है.’’

ईरान जाने की इच्छा

शब्बीर का कहना है कि वे भले ही ईरान नहीं गए हैं लेकिन उनकी बस्ती में ईरानी संस्कृति अब भी जिंदा है. वैसे उनकी इच्छा है कि वे एक बार ईरान के शिराज शहर घूम आएं जहां से उनके पुरखे हिंदुस्तान आए थे.

वो कहते हैं, “हमारी इच्छा शिराज जाने की है. देखिए ऐसा हो पाता है कि नहीं. हम जानना चाहते हैं कि शिराज कैसा है, हम ईरान को महसूस करना चाहते हैं.’’

ईरानी बस्ती के एक अन्य बाशिंदे शोएब का कहना है कि ईरान तो उनके बाप-दादा भी नहीं गए हैं लेकिन उनकी इच्छा है कि वो वहां जाएं.

शोएब कहते हैं, “मेरी शादी अब तक नहीं हुई है, कई बार सोचता हूं कि क्या मेरी शादी ईरान में हो सकती है? लेकिन घर वाले बताते हैं कि ऐसा संभव नहीं है. वैसे मैं एक बार जरूर ईरान घूमने जाऊंगा.’’

तालिब अली ईरानी व्यंजन के बारे में बताते हैं और चूल्हे के पास ले जाकर कहते हैं, “ईरानी व्यंजन का अपना अलग मजा है. हालांकि हम अक्सर ईरानी खाना नहीं खाते हैं लेकिन खास मौके पर घर में ईरानी खाना ही तैयार होता है. हम बड़े चाव से ‘चेलो कबाब’ खाते हैं.’’

बदलाव

‘चेलो कबाब’ के बारे में पूछे जाने पर तालिब ने बताया कि यह मांसाहारी व्यंजन है जिसे चावल के साथ खाया जाता है.

ईरान की बात हो और चाय की बात न हो, तालिब कहते हैं “सच कहें तो ईरानी चाय हमारे यहां नहीं तैयार होती, हम दार्जिलिंग की खुशबूदार चाय के ही दीवाने हैं. ईरानी चाय तो दिल्ली-मुंबई के कैफे की शान है.’’

ये लोग दस साल पहले तक तंबुओं में ही गुजर-बसर करते थे लेकिन अब तंबू की जगह घास-फूस के घर बन गए हैं.

स्थानीय निवासी जहीर अब्बास बताते हैं, “वक्त के साथ कुछ बदलाव खुद ब खुद हो जाते हैं. ईरानी बस्ती पहले तंबू के लिए पहचानी जाती थी. तंबू हमारी पहचान हुआ करती थी और हम यह भी जानते थे कि ईरान में हमारे पूर्वज कबीले में तंबू में रहा करते थे लेकिन तंबू के रखरखाव में काफी खर्च होता था इसलिए हम सभी झोपड़ीनुमा घर बनाने लग गए.”

ईरानी बस्ती की युवा पीढ़ी भी ईरान से अपने जुड़ाव को लेकर बेहद गंभीर है.

वतन की महक

बारहवीं में पढ़ रहे अरमान अली कहते हैं, “भला वह कौन होगा जिसे अपने पुरखों की जमीन से जुड़ाव न हो. हालांकि हमारे लिए यह सब परीकथा जैसा है. सच तो यह है कि हमें ईरान के शिराज शहर या किसी भी इलाके के बारे में कुछ भी सही-सही पता नहीं है. हम इंटरनेट पर ईरान के बारे में कुछ न कुछ खोजते रहते हैं.’’

इस बस्ती में तकरीबन एक सौ घर हैं, जहां क़बायली अंदाज में लोग जीवन बसर कर रहे हैं.

रुखसाना बेगम बताती हैं, “ईरान को लेकर हमने अब तक कहानियां सुनी हैं लेकिन उन कहानियों में भी हम खुद को खोज लेते हैं या फिर जब घर में ईरानी खाना तैयार होता तो हमें लगता है कि हम ईरान में ही हैं. देखिए आज भी हम नान तैयार कर रहे हैं, यह भी ईरानी जायका है.”

बस्ती में पत्थरों के काम के खास जानकार कासिद अली कहते हैं, “हमारे पुरखे कई सौ साल पहले यहां आए थे, इसलिए अब हम इंडियन ईरानी ही कहलाते हैं. हम अब यहीं के हैं. सारे रिश्ते नाते यहीं हैं. हम वहां जाना भी नहीं चाहेंगे.”

ईरान से आए लोगों के ये वंशज अब भारतीय हो गए हैं लेकिन उनके भीतर उस वतन की महक अब भी है जहां से वो यहां आए थे और शायद इसीलिए उनकी बस्ती का नाम भी उसी देश के नाम पर है यानी-ईरान.”

 

 

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