पटना। शहर में रोजाना एक मंडी लगती है। खास चौक-चौराहों पर। यहां पेट की खातिर पसीने का तोल-मोल आम है। इस मंडी में मजदूरों दिहाड़ी का दाम लगता है। उम्र के हिसाब से। खरीदार न मिलने पर पेट पचकाए वे घर लौट जाते हैं। शहर का यह नजारा जॉब कार्ड, वृद्धावस्था पेंशन से लेकर असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की बीमा योजना जैसी तमाम योजनाओं पर खुद में एक सवाल है। सभी गांव से आते हैं। झोले में रोटी-तरकारी, नून-प्याज बांधे। कुछ का डिब्बा घरवाली बांधती है तो कुछ शहर के किसी कोने अंतरे में चूल्हा जोड़ भोर होने से पहले रोटी सेंक लेते हैं।
राजधानी के राजापुल, बोरिंग कैनाल रोड के पंचमुखी हनुमान मंदिर, बोरिंग रोड चौराहा, एएन कॉलेज, जगदेव पथ, जोगीपुर, मलाही पकड़ी, खेमनीचक, पोस्टल पार्क सरीखे इलाके में सूरज की पहली किरण के साथ यह मंडी सजती है। और सूरज के चढ़ने के साथ ही पतरा जाती है। यहां बेलदार, मजदूर, राजमिस्त्री, पेंटर और पुताई करने वाले रोज इकट्ठा होते हैं। इसमें न सिर्फ कस्बे, बल्कि नगरीय क्षेत्रों के मजदूर भी शामिल होते हैं। जिस प्रकार व्यापारी अपने माल को बेचने के लिए दुकानें सजाते हैं, ठीक उसी तरह मिस्त्री, मजदूर और बेलदार अपने उपकरणों से लैस होकर आते हैं। बोली लगाने वाले वे होते हैं, जिन्हें अपने घरों और प्रतिष्ठानों पर निर्माण संबंधी कार्य कराने होते हैं। कुछ मजदूरों को ही काम मिलता है, जिन्हें काम नहीं मिलता, वे निराश होकर अपने घरों को लौट जाते हैं। यह क्रम यूं ही प्रतिदिन चलता है।
मनरेगा की हकीकत बताते हैं मजदूर
केंद्र सरकार ने जब महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) शुरू की थी, तब मजदूरों को लगा था कि शायद अब उन्हें बिना सीजन के भी काम मिलता रहेगा। लेकिन योजना के वर्षो बीतने के बाद भी मजदूरी करने वालों का यह संकट खत्म नहीं हुआ है।
सबसे ज्यादा सताता है मौसम
इन मजदूरों का सबसे बड़ा दुश्मन है मौसम। तेज गर्मी-बारिश हो या ठंड-कोहरा पड़ने पर मंडी नहीं सजती। बारिश के मौसम में तो इन मजदूरों को निराशा ही हाथ लगती है। कुछ मजदूर जिद कर आ जाते हैं, तो बोली लगाने वाले नहीं मिलते। ऐसे मौसम में निर्माण कार्य बंद हो जाते हैं। मजदूरों की दिहाड़ी भी संकट में होती है। हां, उस मौसम में बस एक चिंता उनका साथ नहीं छोड़ती कि आज जेब खाली होगी तो क्या खाएंगे और बच्चों को क्या खिलाएंगे।