‘मारो फिरंगियों को’ के नारे से गूंज उठा था ये शहर

-information-about-1857-revolutionग्रेटर नोएडा। 1857 दिन रविवार। मेरठ में तैनात ईस्ट इंडिया कंपनी की थर्ड कैवेलरी, 11वीं और 12वीं इन्फेंट्री के ब्रिटिश जवान पारंपरिक चर्च परेड में हिस्सा लेने वाले थे। गर्मी का मौसम था इसीलिए परेड आधे घंटे की देरी से शुरू होनी थी। इस परेड में अंग्रेज सैनिक निहत्थे हुआ करते थे।

राइफल में इस्तेमाल के लिए गाय व सूअर की चर्बी से बने कारतूस दिए जाने को लेकर इस इन्फेंट्री में तैनात भारतीय जवानों में गुस्सा 6 मई से ही था। 90 भारतीय जवानों को ये कारतूसें दी गई थीं और इनमें से 85 में इनका इस्तेमाल करने से इन्कार कर दिया था। नतीजा यह हुआ कि इनका कोर्ट मार्शल किया गया और इन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। उसी दिन भारतीय जवानों ने बगावत का मन बना लिया। इन जवानों ने सोच-समझ कर रविवार का दिन चुना क्योंकि इन्हें मालूम था कि अंग्रेज सैनिक निहत्थे चर्च परेड में जाएंगे। लेकिन आधे घंटे की देरी की जानकारी उन्हें नहीं थी। लिहाजा वे बैरक में रखे हथियार व कारतूसों पर तो कब्जा नहीं जमा पाए लेकिन कई अफसरों को मौत के घाट जरूर उतार दिया। अंग्रेज सैनिकों ने खुद की और हथियारों की रक्षा जरूर की लेकिन भारतीय जवानों का सामना नहीं कर पाए। इधर ये क्रांतिकारी हिंदुस्तानी सैनिक आजीवन कारावास में कैद अपने साथियों को छुड़ाकर ‘मारो फिरंगियों को’ के नारे बुलंद करने लगे। इससे पहले कि अंग्रेज बहादुर और उनके सैनिक कुछ समझ पाते इन सैनिकों का यह जत्था दिल्ली के लिए रवाना हो गया। महत्वपूर्ण यह है कि मेरठ में इतना बड़ा कांड हो चुका था लेकिन शहर में आमतौर पर शांति थी और किसी को इस पूरे वाकये का ठीक-ठीक पता भी नहीं था।

एक विभाजन रेखा थी यह क्रांति

1857 के स्वतंत्रता संग्राम पर काम करने वाले मेरठ निवासी ललित दूबे बताते हैं कि हिंदुस्तानी सैनिकों ने मई की रात विक्टोरिया जेल तोड़कर अपने 85 सैनिकों को रिहा कराकर कच्चे रास्ते से दिल्ली की ओर कूच किया। यह कच्चा रास्ता और बैरक आज भी बरकरार है। उन्होंने बताया कि तब मेरठ से दिल्ली के लिए सड़क नहीं बनी थी। सैनिकों ने छोटा रास्ता अपनाया। सैनिक कच्चे रास्ते से मोहिद्दीनपुर, मोदीनगर, गाजिउद्दीनपुर से बागपत में यमुना पुल पार करके दिल्ली पहुंच गए। दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक डॉ. विजय काचरू का कहना है कि यह क्रांति इतिहास की एक विभाजन रेखा है। इसे केवल सैन्य विद्रोह नहीं कह सकते। क्योंकि जिन लोगों ने दिल्ली कूच किया वह समाज के हर वर्ग से आए थे। यह व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह था। इस विद्रोह के बाद भारतीय और अंग्रेज दोनों की विचारधारा में परिवर्तन आया। भारतीय और राष्ट्रवादी हुए और अंग्रेज और प्रतिरक्षात्मक।

दादरी क्षेत्र के जिन क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने फांसी पर लटकाया था, उनके नाम का शिलालेख दादरी तहसील में लगा हुआ है। यहां एक छोटा स्मारक भी बना है। यहां राव उमराव सिंह की मूर्ति दादरी तिराहे पर लगी है। इसके अलावा, शहीदों का कोई चिन्ह जिले में शेष नहीं बचा है।

error: Content is protected !!