तय हो महामहिम का फांसी माफ करने का आधार

supreem courtनई दिल्ली। फांसी की सजा माफ करने के राष्ट्रपति व राज्यपाल के आधार और मानदंडों पर सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाया है। कोर्ट ने कहा है कि फांसी देना या माफ करना किस्मत की बात नहीं होनी चाहिए। फांसी के मामले में अनिश्चितता नहीं होनी चाहिए। न्यायपालिका और कार्यपालिका दोषी को मौत की सजा देने के मामले में अलग-अलग मानदंड अपनाती हैं। जहां न्यायपालिका दुर्लभतम मामले का सिद्धांत अपनाती है, वहीं कार्यपालिका (राष्ट्रपति और राज्यपाल) किस आधार पर फांसी की सजा माफ करते हैं, पता नहीं। विधि आयोग को इस पर विचार करना चाहिए। राष्ट्रपति व राज्यपाल के माफी देने के आधार व मानदंड निश्चित न होने का मुद्दा न्यायमूर्ति मदन बी. लोकूर ने महाराष्ट्र के शंकर कृष्णराव खाडे की मौत की सजा उम्रकैद में तब्दील करते हुए उठाया है। न्यायमूर्ति लोकूर ने खाडे को बच्ची से रेप व हत्या के जुर्म में सुनाई गई मौत की सजा उम्रकैद में बदलने के न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन के फैसले से सहमति जताई है। दोनों न्यायाधीशों ने खाडे की मौत की सजा उम्रकैद में तो बदल दी, लेकिन साफ किया है कि खाडे को विभिन्न अपराधों में सुनाई गई सजाएं एक साथ न चल कर एक के बाद एक चलेंगी।

न्यायमूर्ति लोकूर ने कहा कि अदालतें दुर्लभतम मामले का सिद्धांत अपनाते हुए फांसी की सजा देती हैं। लेकिन बहुत से मामलों में कार्यपालिका (राष्ट्रपति व राज्यपाल) फांसी को उम्रकैद में बदल देती है। कार्यपालिका किस आधार पर ऐसा करती है, यह पता नहीं चलता। जस्टिस लोकूर कहते हैं कि क्या अपराध और अपराधी के नजरिये से मामला दुर्लभतम नहीं था जो कि माफी दे दी गई? अगर ऐसा नहीं था तो फिर क्या कारण था कि सक्षम अदालत के नजरिये से भिन्न निष्कर्ष निकाला गया। लगता है कि कार्यपालिका फांसी को उम्रकैद में बदलते समय कुछ ऐसे पहलुओं पर विचार करती है, जो अदालतों को मालूम नहीं हैं। जस्टिस लोकूर कहते हैं कि जब हम मौत की सजा सुनाते हैं तो जरूरी हो जाता है कि उसका विधिशास्त्रीय (कानूनी) आधार हो। जब इस संबंध में नि:संदेह अन्य विकल्प समाप्त हो गए हों तो आगे भी अनिश्चितता नहीं रहनी चाहिए। विधि आयोग इस बात की जांच करके मसले का हल निकाल सकता है कि मौत की सजा अपराध रोकने वाली (डिटरेंट) सजा है, या उस अपराध में न्यायोचित दंड (रीटिब्यूटिव) है, अथवा उस अपराध के लिए मौत की सजा ही दी जा सकती है। (सर्व एन इन्कैपेसिटेटिव गोल)।

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