संप्रग-2: नाकामी के चार साल

soniya gandhi and pmनई दिल्ली। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग-2) सरकार बुधवार को अपने दूसरे कार्यकाल के चार साल पूरे कर रही है। पिछले दिनों अपनी उपलब्धियों के प्रदर्शन और अगले साल होने जा रहे चुनाव के मद्देनजर सरकार ने भारत निर्माण का नारा देते हुए कहा कि ‘मीलों हम आ गए, मीलों हमें जाना है’। इसके मद्देनजर सरकार की प्रमुख स्कीमों, प्रदर्शन और दावों पर एक नजर :

मनरेगा :

2006 में शुरू हुई महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) 2009-10 में पूरे देश में लागू हुई। इससे गरीब परिवारों को सौ दिन रोजगार की कानूनी गारंटी मिली। बीते सात वर्षो में इस योजना पर 19 लाख करोड़ रुपये खर्च किए गए। लेकिन इन प्रयासों के बावजूद मानव श्रम दिवस के सृजन में 26 प्रतिशत कमी आई है। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा दलितों, आदिवासियों और महिलाओं को उठाना पड़ा है। कोष का अभाव, भ्रष्टाचार, स्कीम की निगरानी के लिए कुशल व्यक्तियों की कमी और भुगतान में विलंब इसकी असफलता के बड़े कारण माने जा रहे हैं।

अनिवार्य स्कूली शिक्षा :

शिक्षा के अधिकार के तहत छह से चौदह वर्ष तक के बच्चों को अनिवार्य स्कूली शिक्षा देने के लिए 2009 में कानून बना। मिड डे मील समेत अन्य योजनाओं के चलते प्राथमिक स्कूलों (एक-पांच तक) में सकल नामांकन अनुपात पहले ही 100 प्रतिशत तक पहुंच गया था। लेकिन 2001 में कक्षा पांच तक स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की संख्या 40 प्रतिशत और आठवीं तक 53 प्रतिशत थी। सर्व शिक्षा अभियान और मिड डे मील की मदद से 2009 में इसमें कमी आई और यह अंतर क्रमश: 30 और 42 प्रतिशत हो गया।

प्राथमिक स्कूलों में बीच में पढ़ाई छोड़ने वाली इन्हीं 30 प्रतिशत बच्चों के लिए इस कानून को बनाया गया है। इसमें 25 प्रतिशत सीटें आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लिए आरक्षित हैं। वित्तीय वर्ष 2014-15 तक पूरे देश में इसको लागू करने के लिए 2,31,233 करोड़ रुपये खर्च किए जाने की आवश्यकता है। यह धनराशि आधारभूत ढांचे के निर्माण, पांच लाख शिक्षकों की नियुक्ति और सात लाख अकुशल शिक्षकों को प्रशिक्षण देने पर खर्च होगी।

खाद्य सुरक्षा :

वर्षो की बहस के बाद अब भी खाद्य सुरक्षा बिल संसद में लंबित है। देश में 23 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं। यह इस प्रकार की कुल वैश्विक आबादी का चौथाई है। इसलिए इस मुद्दे को प्राथमिकता में शामिल किया जाना चाहिए था। लेकिन, संप्रग सरकार खर्चो में कटौती और गरीबों को भोजन उपलब्ध कराने की जद्दोजहद में ही फंसी रही। नए बिल में 75 प्रतिशत ग्रामीण और 50 प्रतिशत शहरी परिवारों को सस्ती दरों पर खाद्यान्न देने का प्रावधान किया गया है। इससे करीब एक लाख 24 हजार करोड़ रुपये हर साल खर्च का अनुमान है। दूसरी तरफ, फसलों की बंपर पैदावार से गोदामों में इनको रखने की जगह नहीं है। आवश्यकता से करीब ढाई गुना अधिक खाद्यान्न भंडारों में एकत्रित है। इस मामले में नाराज सुप्रीम कोर्ट ने भी बीते 12 वर्षो में करीब 92 दिशा-निर्देश जारी किए हैं।

दावे :

भले ही सरकार पर तमाम नाकामियों के आरोप लग रहे हैं, लेकिन सरकार कई क्षेत्रों में अपनी कामयाबियों का जिक्र कर रही है:

कैश ट्रांसफर पॉलिसी :

गरीबों को प्रत्यक्ष रूप से लाभ पहुंचाने के लिए और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए यह कार्यक्रम शुरू किया गया है। इसको अगले चुनाव के लिए सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी स्कीम माना जा रहा है।

स्वास्थ्य क्षेत्र:

गांवों में स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) की शुरुआत की गई। शहरी आबादी के लिए सरकार ने राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन को मंजूरी दी।

निवेश:

सरकार का दावा है कि उसने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए अनुकूल माहौल बनाया। सिंगल ब्रांड रीटेल के बाद मल्टी ब्रांड रीटेल में एफडीआइ की कवायद शुरू हुई।

अनिर्णय की स्थिति:

नीतिगत निर्णयों के क्रियान्वयन में देरी से सरकार पर वक्त पर फैसले नहीं लेने पाने का आरोप लगता रहा है।

साख का सवाल :

राष्ट्रमंडल घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कोयला घोटाला, हेलीकॉप्टर सौदा घोटाला, रेलवे में घूसखोरी में रेल मंत्री के भांजे का पकड़ा जाना और सीबीआइ रिपोर्ट में फेरबदल करवाने के चलते सरकार के साथ-साथ प्रधानमंत्री की।

बदनामी हुई:

कामकाज :

संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में 15वीं लोकसभा को ऐसे सदन के रूप में याद किया जाएगा, जिसमें सबसे कम कामकाज हुआ।

लंबित बिल:

भूमि अधिग्रहण बिल पर सरकार अभी तक कोई ठोस निर्णय नहीं ले पाए। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) पर सहमति नहीं बन पाने के कारण उसको टालना पड़ा। इनके अलावा, परमाणु बिल समेत करीब 100 से भी ज्यादा महत्वपूर्ण बिल सदन में फिलहाल लंबित हैं, जबकि संसदीय कार्य दिवस महज 50 के आस-पास ही बचे हैं।

error: Content is protected !!