.आखिर क्यों गुस्से में है अलकनंदा

28_06_2013-Alaknandaरुदप्रयाग [केदार दत्त]। बैकुंठ धाम से निकलकर मां धारी देवी के चरणों को स्पर्श कर शांत भाव से आगे बढ़ रही अलकनंदा को देख कतई नहीं लगता कि 10 दिन पहले यही नदी बदरीधाम से लेकर देवप्रयाग तक भारी तबाही का सबब बनी। ऐसे में सवाल कौंधना लाजिमी था कि आखिर अलकनंदा को इतना गुस्सा क्यों आया। वह क्रोधित क्यों है। यह नदी पहले भी कई मर्तबा उफान पर रही, मगर इस बार ऐसी तबाही.।

देवप्रयाग से रुद्रप्रयाग तक पहुंचते-पहुंचते जगह-जगह नदी से सटकर हुए अतिक्रमण और निर्माण कार्यो को देख इन सवालों का जवाब भी मिलने लगा। बात समझ आने लगी कि यदि नदी को नाले में तब्दील करने की कोशिश होगी तो उसे क्रोध आएगा ही।

दरअसल, विकास की अंधी दौड़ में हम ‘नदी तीर का रोखड़ा, जतकत सैरो पार’ (नदी किनारे रहने पर वह कभी भी मुसीबत का सबब बन सकती है) वाली कहावत भी भूल बैठे। देवप्रयाग से लेकर श्रीनगर और फिर रुद्रप्रयाग और इससे आगे भी अतिक्रमण से नदी से सटी है। कुछेक निर्माण तो नदी तट से ही हुए हैं। प्रशासन के आंकड़ों का ही जिक्र करें तो क्षतिग्रस्त हुए 200 से अधिक निर्माण नदी की सीमा के अंतर्गत थे।

न सिर्फ अलकनंदा बल्कि उसकी सहायक नदियों पिंडर, मंदाकिनी आदि का आलम भी इससे जुदा नहीं है। रही-सही कसर पूरी कर दी बिना सोचे समझे और यहां की परिस्थितियों का आकलन किए बिना बनाई गई तमाम विकास योजनाओं ने। इन हालातों में अलकनंदा को गुस्सा नहीं आएगा तो भला और क्या होगा। पर्यावरणविद् भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं। उनका कहना है कि विकास जरूरी है, लेकिन यह ऐसा हो जो विनाश का कारण न बने।

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