हालांकि दिल्ली में लगातार तीन बार मुख्यमंत्री रह चुकी वयोवृद्ध शीला को उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद का दावेदार बताना चौंकाने वाला जरूर है, मगर समझा जाता है कि कांग्रेस के पास मौजूदा हालात में इससे बेहतर विकल्प था भी नहीं। ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों की आबादी करीब दस प्रतिशत है, जो कि परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ ही रही है। हालांकि बाद में अन्य दलों ने भी उसमें सेंध मारी। विशेष रूप से बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद यह वर्ग कांग्रेस से दूर हो गया। ऐसे में कांग्रेस की ओर से ब्राह्मण चेहरे के रूप में एक स्थापित शख्सियत को मैदान में उतार कर फिर से ब्राह्मणों को जोडऩे की कोशिश की गई है।
जहां तक शीला की शख्सियत का सवाल है, बेशक वे एक अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं। देश की राजधानी जैसे राज्य में लगातार पंद्रह साल तक मुख्यमंत्री रहना अपने आप में एक उपलब्धि है। स्पष्ट है कि उन्हें राजनीति के सब दावपेच आते हैं। कांग्रेस हाईकमान से पारीवारिक नजदीकी भी किसी से छिपी हुई नहीं है। इसी वजह से वे कांग्रेस में एक प्रभावशाली नेता के रूप में स्थापित हैं। हालांकि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस में जबरदस्त गुटबाजी है, मगर शीला दीक्षित इतना बड़ा नाम है कि किसी को उन पर ऐतराज करना उतना आसान नहीं रहेगा। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि उनके नाम पर सर्वसम्मति बनाना बहुत कठिन नहीं होगा।
शीला दीक्षित का उत्तर प्रदेश से पूर्व का कनैक्शन होना भी उन्हें दावेदार बनाने का एक कारण है। शीला का जन्म पंजाब के कपूरथला में हुआ है, मगर उनकी शादी उत्तर प्रदेश में हुई। उन्होंने बंगाल के राज्यपाल रहे उमा शंकर दीक्षित के पुत्र आईएएस विनोद दीक्षित से शादी की। विनोद जब वे आगरा के कलेक्टर थे, तब शीला समाजसेवा में जुट गईं और बाद में राजनीति में आ गईं। 1984-89 के दरम्यान कन्नौज से सांसद भी रही।
जहां तक राज बब्बर को प्रदेश अध्यक्ष बनाने का सवाल है, वह भी एक नया प्रयोग है। कांग्रेस उनके ग्लैमर का लाभ उठाना चाहती है। लाभ मिलेगा या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा। अन्य दलों में बंटे जातीय समूहों के कारण उत्तर प्रदेश का जातीय समीकरण ऐसा है कि किसी चमत्कार की उम्मीद करना ठीक नहीं होगा, मगर परफोरमेंस जरूर बेहतर हो सकती है।
-तेजवानी गिरधर
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