अपने गढ़ में ही है भाजपा की हालत खस्ता

तेजवानी गिरधर
तेजवानी गिरधर
जिले के आठ में से सात विधानसभा क्षेत्रों, लोकसभा सीट, जिला परिषद व नगर निगम पर काबिज भाजपा यूं तो बहुत मजबूत दिखाई देती है, है भी, मगर मात्र ढ़ाई साल में ही उसका ग्राफ जिस तरह से गिरने लगा है, उससे प्रतीत होता है कि यहां भाजपा की जो भी पकड़ नजर आती है, वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की लोकप्रियता के कारण बनी, जिसे कि स्थानीय नेता संभाल नहीं पा रहे।
वस्तुत: इन नेताओं में आपसी तालमेल का कितना अभाव है, इसकी बानगी उस वक्त नजर आ गई, जब केन्द्र व राज्य में भाजपा का झंडा बुलंद होने के बाद भी नसीराबाद विधानसभा उपचुनाव में खुद प्रो. सांवरलाल जाट अपनी इस सीट से खड़ी हुई सरिता गेना को नहीं बचा पाए। ज्ञातव्य है कि वे यहां से विधायक और प्रदेश के केबीनेट मंत्री थे। उन्होंने ने बड़ी अनिच्छा के बाद इस सीट का मोह छोड़ लोकसभा का चुनाव लड़ा था। एक सांसद का अपने ही इलाके में पार्टी की साख न बचा पाना गंभीर संकेत था। चटकारे लेने वाले तो यहां तक कहते हैं कि खुद उनकी रुचि ही सरिता को जिताने में नहीं थी, क्योंकि अगर वे जीत जातीं तो इस सीट पर उनके पुत्र रामस्वरूप लांबा का भविष्य समाप्त हो जाता। समझा जा सकता है कि स्वार्थ के आगे पार्टी हित की क्या अहमियत है? वरना ऐसा हो नहीं सकता था कि उनके खुद के इलाके में ही पार्टी की भद पिट जाती। उनका कद पार्टी से कितना ऊंचा है, इसकी बानगी हाल ही पार्टी की फीडबैक बैठक के दौरान उनके समर्थकों द्वारा उन्हें मंत्रीमंडल से हटाए जाने के विरोध में जम कर हंगामा करने के दौरान मिली थी। अगर ये कहा जाए कि उनकी मथुरा तीन लोक से न्यारी है तो गलत नहीं होगा। वे जो कुछ हैं, अपने दम पर हैं, संगठन से उनका कोई खास वास्ता नहीं। यहां यह उल्लेख करना लाजिमी है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को वे फूटी आंख नहीं सुहाते, फिर भी वे वसुंधरा राजे की पसंद होने के कारण जिले व राज्य दिग्गज नेता हैं।
अब चर्चा करते हैं लगातार तीन बार दोनों विधानसभा सीटों पर भाजपा को जीत दिलाने वाले अजमेर शहर की, जिसमें पिछले दिनों हुए नगर निगम चुनाव ने पार्टी नेताओं की फूट को चौराहे पर ला खड़ा किया था। पार्टी एकजुट हो कर नहीं लड़ पाई। संगठन मूक दर्शक सा खड़ा था। अजमेर दक्षिण के वार्ड श्रीमती अनिता भदेल ने संभाले तो उत्तर के प्रो. वासुदेव देवनानी ने। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि पूरे शहर के चुनाव न हो कर दो हिस्सों में बंटे इलाकों के चुनाव हो रहे थे। इतना ही नहीं, जिसका जितना बस चल रहा था, उसने उतना ही दूसरे के इलाके में भीतरघात की। नतीजा सामने आ गया। भाजपा के इस कथित गढ़ में बोर्ड बनाना ही कठिन हो गया। मेयर बनने को आतुर पूर्व नगर परिषद सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत कांग्रेस का समर्थन लेकर बागी हो गए। यद्यपि धर्मेन्द्र गहलोत विजयी घोषित हुए, मगर आरोपित रूप से गड़बड़ करके। शेखावत कोर्ट चले गए। संगठन की मर्यादाओं से इतर दो धुर विरोधियों की हठधर्मिता देखिए कि देवनानी ने सामान्य सीट पर फिर गहलोत के रूप में ओबीसी को मेयर बनवा दिया तो भदेल ने भी अपने चहेते, ओबीसी के संपत सांखला को डिप्टी मेयर पद पर आसीन करवा दिया। सामान्य वर्ग के नेता ठगे से रह गए। उनकी कुंठा आगे चल कर कुछ गुल खिला सकती है। पार्टी को एक बड़ा नुकसान ये हुआ कि उसने सामान्य वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे शेखावत को खो दिया। संभवत: वे आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी का एक बड़ा सिरदर्द साबित हो जाएं।
बात ताजा घटनाक्रम की करते हैं। केन्द्र व राज्य में बहुमत वाली सरकारों के होते हुए पंचायती राज उपचुनाव में पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा। एकजुटता का अभाव समझने के लिए इतना ही काफी है कि स्थानीय नेता इस चुनाव को मैनेज नहीं कर पाए। या तो सत्ता के नशे में चूर नेताओं ने लापरवाही बनती, या फिर उनकी रुचि ही नहीं थी।
हालांकि उपचुनाव और अगर वे विशेष रूप से पंचायतीराज व स्थानीय निकाय के हों, तो उसके नतीजे किसी पार्टी को पूरी तरह से नकार दिए जाने अथवा किसी को नवाजने का सीधा-सीधा संकेत तो नहीं देते, मगर वे ये इशारा तो करते ही हैं कि राजनीतिक बयार कैसी बह रही है या बहने जा रही है। इसे साफ तौर पर भले ही आम जनादेश की संज्ञा नहीं दी जा सकती, मगर इतना तय है कि सत्तारूढ़ भाजपा को आम जनता ने खतरे की घंटी तो सुना ही दी है। यद्यपि विधानसभा चुनाव अभी दूर हैं, मगर ये छोटे व स्थानीय चुनाव अनाज की बोरी में लगाए जाने वाली परखी की तरह हैं, जो बयां कर रही है कि वर्तमान में भाजपा की हालत क्या है?
अजमेर के विशेष संदर्भ में बात करें तो भाजपा के लिए यह हार इस कारण सोचनीय है क्योंकि जिले के 8 में से 7 विधायक भाजपा के हैं। इनमें से दो राज्यमंत्री व एक संसदीय सचिव हैं। जिला परिषद और स्थानीय निकाय में भी भाजपा का कब्जा है। भाजपा के लिए यह शर्मनाक इस वजह से भी हो गया है, क्योंकि उसने सत्तारूढ होने के हथकंडे इस्तेमाल करके भी पराजय का मुंह देखा। इन चुनावों पर कदाचित ज्यादा गौर नहीं किया जाता, मगर भाजपा ने खुद ही मंत्रियों व विधायकों से लेकर नगर पालिका अध्यक्षों आदि को जोत कर इसे प्रतिष्ठा का प्रश्र बना दिया। रही सही कसर मीडिया ने पूरी कर दी, जो कि आजकल कुछ ज्यादा ही संवदेनशील हो गई है। यह संवेदना इस वजह से है कि भाजपा ने जिस सुराज का सपना दिखा कर आम जन का जबदस्त समर्थन हासिल किया, वह सपना धरातल पर कहीं उतरता नजर नहीं आया। इस चुनाव ने साफ कर दिया है कि अच्छे दिन के नारे यदि धरातल पर नहीं उतरे तो जनता पलटी भी खिलाना जानती है।
इन उपचुनावों ने देहात जिला भाजपा अध्यक्ष प्रो. बी. पी. सारस्वत सहित कुछ अन्य भाजपा नेताओं को मुंह दिखाने के काबिल नहीं छोड़ा है, क्योंकि चंद दिन बाद ही 15 अगस्त को अजमेर में आयोज्य राज्य स्तरीय स्वतंत्रता दिवस समारोह में मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे आने वाली हैं। कभी सफल सदस्यता अभियान चला कर भाजपा हाईकमान के चहेते बने प्रो. बी. पी. सारस्वत को दुबारा देहात जिला अध्यक्ष बनाया ही इसलिए गया था कि उनसे बेहतर संगठनकर्ता नहीं मिल रहा था, मगर ताजा चुनाव परिणाम ने उनकी कलई खोल दी है। हालांकि पार्टी प्रत्याशियों की हार के अनेक स्थानीय कारण हैं, मगर चूंकि उनके नेतृत्व में रणनीति बनी, इस कारण हार की जिम्मेदारी से वे बच नहीं सकते। अब तो ये भी गिना जा रहा है कि नसीराबाद विधानसभा क्षेत्र में आने वाली 9 ग्राम पंचायतों को मिला कर बनाये गए जिला परिषद के वार्ड नंबर 5 में सारस्वत का गांव बिड़कच्यावस भी आता है, लेकिन उनके गांव में भी भाजपा को जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा। इस चुनाव से जिला प्रमुख वंदना नोगिया को महज आभूषणात्मक जिला प्रमुख साबित कर दिया है, जिनकी धरातल पर कोई पकड़ नहीं है। उनके अतिरिक्त पुष्कर विधायक सुरेश रावत व किशनगढ़ विधायक भागीरथ चौधरी पर भी हार की जिम्मेदारी आयद होती है। हार की एक वजह जाटों की बेरुखी भी बताई जा रही है, जो कि अजमेर के सांसद प्रो. सांवरलाल जाट को केन्द्रीय मंत्रीमंडल से हटाए जाने से नाराज हैं।
असल में अजमेर जिले में पार्टी संगठन का ढ़ांचा कुछ खास मजबूत नहीं है। धरातल पर जरूर पार्टी समर्थक दमदार हैं, मगर उन्हें एक सूत्र में बांधने वाला कोई नहीं है। कुछ साफ तौर पर गुटों में बंटे हैं तो तटस्थ कार्यकर्ताओं की स्थिति पैंडुलम सी है। अगर ये कहें कि संगठन तो नाम मात्र का है, चंद नेता अपने-अपने हिसाब से पार्टी कार्यकर्ताओं को हांक रहे है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यूं तो मोटे तौर पर पार्टी कई गुटों में बंटी हुई है, मगर बड़ी गुटबाजी शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी और महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल के बीच है। हालांकि वरिष्ठ नेता और राजस्थान पुरा धरोहर प्रोन्नति प्राधिकरण के अध्यक्ष औंकार सिंह लखावत स्थानीय पचड़ों से दूर हैं, मगर जयपुर में बैठ कर देवनानी की कब्र खोदते रहते हैं। श्रीमती भदेल के गॉड फादर वे ही हैं। अजमेर के खाते में गिने जाने वाले राज्यसभा सदस्य भूपेन्द्र यादव का कद इतना ऊंचा है कि उनको कोई छू भी नहीं सकता। वे स्थानीय चंद नेताओं पर वरदहस्त रखे हुए हैं। स्थानीय मसलों में कुछ खास दखल नहीं करते।
कुल मिला कर इससे समझा जा सकता है कि शहर जिला अध्यक्ष अरविंद यादव और देहात जिला अध्यक्ष प्रो. भगवती प्रसाद सारस्वत कितनी कमजोर स्थिति में हैं। दोनों संगठन के प्रमुख तो हैं, मगर उनका बड़े नेताओं पर कोई जोर नहीं चलता। अजमेर देहात में कई क्षत्रप हैं तो अजमेर शहर में पार्टी दो हिस्सों में विभाजित है।
पिछले पंद्रह साल से संगठन की हालत ये ही है। न तो पूर्व अध्यक्ष व पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत की कोई सुनता था और न ही अजमेर विकास प्राधिकरण के मौजूदा अध्यक्ष शिव शंकर हेड़ा के शहर अध्यक्ष होने के दौरान उनकी कुछ खास अहमियत रही। नगर निकाय के चुनाव में केवल और केवल देवनानी व भदेल की ही चलती आई है। अगर ये कहा जाए कि इन दोनों का जब से अभ्युदय हुआ है, तब से संगठन नाम मात्र का रह गया है तो गलत नहीं होगा। संयोग से दोनों लगातार तीन बार जीत गए, मगर पार्टी कार्यकर्ता इतना पीडि़त है कि उसे बयां करना मुश्किल है। केडर बेस पार्टी की ये हालत वाकई अजीबोगरीब है।

-तेजवानी गिरधर
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