लानत है हम पर…

लानत है हम पर कि तकरीबन ढ़ाई माह तक लॉक डाउन की पीड़ा भुगतने के बाद भी हमें सुधारने के लिए सरकार को मास्क व सोशल डिस्टेंसिंग की पालना का जागरूकता अभियान चलाना पड़ रहा है।
असल में लॉक डाउन एक मजबूरी थी, जिसने काफी हद तक कोरोना महामारी को रोकने की कोशिश की। रोका भी। यह बात दीगर है कि लॉक डाउन लागू करने के समय, उसके तरीके को लेकर विवाद है, जिससे कि पूरी अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है। एक समय तक तो लॉक डाउन बढ़ाया जाता रहा, मगर उससे हुए आर्थिक संकट और मानसिक पीड़ा ने अंतत: उसे समाप्त करने को मजबूर कर दिया। अब जबकि चरणबद्ध तरीके से लॉक डाउन समाप्त किया जा रहा है, हमारी लापरवाही के कारण महामारी और तेजी से बढ़ रही है। अर्थात लॉक डाउन के दौरान हुई भारी परेशानी के बाद भी हम सोशल डिस्टेंसिंग व मास्क की अनिवार्यता को नहीं समझ पाए। क्या हमें अपनी जान की परवाह तक नहीं, वह भी सरकार ही करे। अब जब कि सरकार दुबारा लॉक डाउन नहीं लगा सकती, ऐसे में ये हमारी जिम्मेदारी है कि किस प्रकार अपनी सुरक्षा करें। सरकार के हाथ में अब सिर्फ इतना ही है कि वह कैसे अधिक से अधिक स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवाए। मगर जब सरकार ने देखा कि आम लोग ये उपाय नहीं अपना रहे हैं, लापरवाही बरते रहे हैं, पुलिस को चकमा दे रहे हैं तो उसे जागरूकता अभियान चलाना पड़ गया। सरकार ने तो मास्क न पहनने व सोशल डिस्टेंसिंग न रखने को लेकर कानून तक बना दिया, जुर्माना लागू कर दिया, बावजूद इसके हम सुधरने का नाम नहीं ले रहे। समझ में नहीं आता कि हम भारतीय किस मिट्टी के बने हुए हैं। अरे जब हम लॉक डाउन के दौरान गरीबों को खाना बांट सकते हैं तो जागरूकता भी ला सकते हैं। उसके लिए प्रशासन व पुलिस को क्यों जुटना पडे। जरा विचारिये, ये जो लाखों रुपया अभियान पर खर्च हो रहा है, वह हमारी बहबूदी के लिए काम आ सकता है।
ये हैं हमारी फितरतें
कैसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि जो हेलमेट हमारी स्वयं की सुरक्षा के लिए जरूरी है, जो सीट बैल्ट हमारी जान की रक्षा करता है, उसे भी पहनाने के लिए सरकार को सख्ती बरतनी पड़ती है। उसमें भी प्रभावशाली लोग और कुछ मीडिया वाले हेलमेट नहीं पहनने को अपनी शान समझते हैं। नियमों को तोडऩे में न जाने कैसा मजा आता है?
इस सिलसिले में ओशो का एक किस्सा याद आता है, जिसका लब्बोलुआब पेश है। एक बार एक भारतीय मंत्री विदेश गए। कड़ाके की सर्दी थी। वे किसी पार्टी से देर रात कार में लौट रहे थे। एक चौराहे पर लाल लाइट देख कर ड्राइवर ने कार रोक दी। इस पर मंत्री महोदय ने कहा कि ट्रैफिक तो बिलकुल नहीं है, कार रोकने की जरूरत क्या है? यानि कि यातायात के नियम तोडना उनकी आदत में शुमार था। इस पर ड़ाइवर ने उन्हें सामने दूसरी साइड पर खड़ी एक बुढिय़ा की ओर इशारा किया कि देखो वह कैसे ठिठुर रही है, मगर फिर भी हरी लाइट होने का इंतजार कर रही है। इस दृष्टांत से समझा जा सकता है कि सरकारी नियमों का पालन करने में हम कितने बेपरवाह हैं।
आपने देखा होगा कि जहां पर भी लिखा होता है कि यहां कचरा फैंकना मना है, हम वहीं पर कचरा डाल आते हैं। सड़क पर कचरा या केले का छिलता फैंकना तो मानो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। मेरे एक मित्र ने बताया कि वे एक बार अपने बेटे के पास कुछ दिन रहने के लिए अमेरिका गए थे। वे एक कार में सफर कर रहे थे। जैसे ही उन्होंने वेफर्स खा कर खाली पाउच कार के बाहर फैंकना चाहा तो उनके बेटे ने रोक दिया और उसे कार में रखे डस्ट बीन में डाल दिया। बाद में जब सड़क के किनारे नियत स्थान पर कचरा पात्र दिखाई दिया तो कार रोक कर डस्ट बीन का कचरा उसमें डाल दिया। बेटे ने बताया कि यहां कोई भी कचरा सड़क पर नहीं फैंकता। गलती से अगर हम कचरा सड़क पर फैंक देते तो सीसी टीवी केमरे की पकड़ में आ जाते और जुर्माना ऑटोमेटिकली बैंक खाते से वसूल लिया जाता। इस उदाहरण से आप समझ सकते हैं कि हम कहने भर को सभ्य हैं, मगर सिविक सेंस भेजे में घुस ही नहीं रहा। गंदगी में रहने के इतने आदी हो चुके हैं कि स्वच्छता अभियान पर करोड़ों रुपए खर्च करने पड़ते हैं।
आपने देखा होगा कि जिस जगह भी लिखा होता है कि यहां पेशाब करना मना है, वहीं पर हम मूत्र विसर्जन करते हैं। सुलभ शौचालयों को छोड़ कर जहां भी सार्वजनिक मूत्रालय या शौचालय हैं, उनमें कितनी गंदगी होती है। वहां एक पल भी नहीं खड़ा रहा जा सकता।
क्या ये कम जहालत है कि रेलवे के डिब्बों में शौचालयों में लिखवाना पड़ता है कि कृपया कमोड गंदा न करें। हद हो गई। अंग्रेजों ने हमें रेल की सौगात दी, मगर आजादी के इतने साल बाद भी हमें ये सऊर नहीं आया कि कमोड को उपयोग करना कैसे है।
हम बड़े धार्मिक कहलाते हैं, मगर इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण क्या होगा कि मंदिरों, दरगाहों, अस्पतालों आदि में चल रही प्याऊ पर रखे गिलास व लोटे को जंजीर से बांधना पड़ता है। ऐसी सब गंदी आदतों के बाद भी ये देश चल रहा है। वाकई भगवान मालिक है। वही इस देश को चला रहा है।
ये सब लिखते हुए तकलीफ तो बहुत हुई, मगर कलम को रोक नहीं पाया। क्षमाप्रार्थी हूं।

-तेजवानी गिरधर
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