श्राद्ध में पूर्वज की पसंदीदा वस्तुएं क्यों अर्पित नहीं की जातीं?

क्या मृतात्मा तक भोजन पहुंचता है?
हिंदू धर्म में मान्यता है कि मनुष्य की मृत्यु हो जाने पर पुनर्जन्म होता है। अर्थात एक शरीर त्यागने के बाद आत्मा दूसरा शरीर ग्रहण करती है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब हमारे किसी पूर्वज की आत्मा मत्योपरांत कहीं और, किसी और शरीर में होती है तो श्राद्ध के दौरान हम उन्हें पंडित के माध्यम से जो भोजन अर्पित करते हैं, वह उन तक कैसे पहुंच सकता है? उनके स्वयं आ कर भोजन ग्रहण करने का तो सवाल ही नहीं उठता। बावजूद इसके हम जब श्राद्ध करते हैं तो पंडित को उतना ही सम्मान देते हैं, जितना पूर्वज को। वस्तुत: हम पंडित में हमारे पूर्वज की उपस्थिति मान कर ही व्यवहार करते हैं। भोजन अर्पित करने के विषय से हट कर बात करें तो भी इस सवाल का क्या उत्तर है कि उन्हें हम जो याद करते हैं अथवा श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, वह उन तक कैसे पहुंचती होगी?
इससे जुड़ी एक बात और। क्या किसी ने अनुभव किया है कि पूर्व जन्म में वह क्या था, कहां था? वस्तुत: प्रकृति की व्यवस्था ही ऐसी है कि वह पूर्व जन्म की सारी स्मृतियों को लॉक कर देती है। वह उचित भी है। अन्यथा सारा गड़बड़ हो जाएगा। स्मृति समाप्त हो जाने का स्पष्ट मतलब है कि हमारा पूर्व जन्म से कोई नाता नहीं रहता। तब सवाल ये उठता है कि क्या हमें भी हमारे पूर्वजन्म के परिजन की ओर से किए जा रहे श्राद्ध कर्म का अनुभव होता है? क्या किसी ने अनुभव किया है कि श्राद्ध पक्ष के दौरान किसी तिथी पर पूर्व जन्म के परिजन हमें भोजन करवा रहे हैं? क्या कभी हमने अनुभव किया है कि बिन भोजन किए ही हमारा पेट भर गया हो? यदि हमारा कोई श्राद्ध रहा है तो ऐसा होना चाहिए, मगर होता नहीं है।
वाकई गुत्थी बहुत उलझी हुई है। अब चूंकि शास्त्र के अनुसार श्राद्ध पक्ष माना जाता है, श्राद्ध कर्म किया जाता है, तो जरूर इस व्यवस्था के पीछे कोई तो विज्ञान होगा ही। हजारों से साल ये यह परंपरा यूं ही तो नहीं चली आ रही। इस बारे में अनेक पंडितों व विद्वानों से चर्चा की, मगर आज तक कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिल पाया है। हद से हद ये उत्तर आया कि भोजन पूर्वज तक पहुंचता हो या नहीं, मगर श्राद्ध के बहाने हम अपने पूर्वजों को याद करने, उनके प्रति सम्मान प्रकट करने और उनकी बताई गई अच्छी बातों का अनुसरण करने के लिए पखवाड़ा मनाते हैं।
इस बारे प्रसिद्ध मायथोलॉजिस्ट श्री देवदत्त पटनायक का अध्ययन बताता है कि मृत्यु के बाद शरीर का एक हिस्सा, जो उसके ऋणों की याद है, जीवित रहता है। वह हिस्सा वैतरणी पार कर यमलोक में प्रवेश करता है। वहां पितर के रूप में रहता है। यदि वह वैतरणी पार नहीं कर पाता तो प्रेत बन कर धरती लोक पर रहता है और तब तक परेशान करता है, जब तक कि उसका वैतरणी पार करने का अनुष्ठान पूरा नहीं किया जाता।
वे बताते हैं कि हर पूर्वज के लिए हर साल उसकी पुण्यतिथी पर अनुष्ठान करना संभव नहीं है, इसलिए श्राद्ध पक्ष का निर्धारण किया गया। इस काल में मृतक जीवित लोगों के सबसे करीब होता है।
उन्होंने एक बहुत दिलचस्प बात भी कही है। वह ये कि हम पूर्वजों को याद तो करते है, सम्मान भी देते हैं, मगर साथ ही डरते भी हैं, उन्हें बहुत सुखद भी अनुभव नहीं करने देते, अन्यथा वे फिर प्रेत बन कर धरती लोग पर आ सकते हैं।
हालांकि उन्होंने इसका खुलासा नहीं किया है कि उन्हें कैसे सुखद अनुभव नहीं होने देते, मगर लगता ऐसा है कि श्राद्ध के दौरान सामान्य दाल-चावल का भोजन इसीलिए दिया जाता है। विभिन्न स्वादिष्ट व्यंजन नहीं खिलाते कि कहीं वह फिर आकर्षित हो कर पितर लोक छोड़ कर न आ जाएं।
कई बार मुझे ख्याल आया है कि अगर हम अपने पूर्वजों का बहुत सम्मान करते हैं, उन्हें सुख पहुंचाना चाहते हैं तो पंडित को वह भोजन करवाना चाहिए, जो कि हमारे पूर्वज को अपने जीवन काल में प्रिय रहा हो। यथा हमारे किसी पूर्वज को शराब, बीड़ी, मांसाहार आदि पसंद रहा हो तो, हमें वहीं अर्पित करना चाहिए। मगर ऐसा नहीं करके सादा भोजन परोसते हैं। मेरी इस शंका का समाधान श्री पटनायक की जानकारी से होता है, अगर उनका अध्ययन सही है तो।

-तेजवानी गिरधर
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