भगवान शिव की परिक्रमा आधी क्यों की जाती है?

धर्मस्थलों में गर्भग्रह में स्थापित मूर्ति और मजारों की परिक्रमा करने की परंपरा है। यह भी सर्वविदित तथ्य है कि परिक्रमा की दिशा घड़ी की सुई की तरह दक्षिणावृत होती है। लेकिन यह बेहद रोचक तथ्य है कि अकेले भगवान शिव अथवा शिव लिंग ही ऐसे हैं, जिनकी परिक्रमा पूरी नहीं की जाती। परिक्रमा जहां समाप्त होती है, वहीं से फिर घड़ी की सुई की विपरीत दिशा में लौटा जाता है। जहां तक भगवान शिव का प्रश्न है तो सब जानते हैं कि उनकी जटा से गंगा का प्रवाह होता है, जो कि अति विशाल है। यह मान कर कि उसे पार नहीं किया जा सकता, परिक्रमा वहीं रोक पर वापस लौट जाते हैं। इसे चंद्राकार परिक्रमा कहा जाता है। इसी प्रकार शिव लिंग पर भी चूंकि विभिन्न प्रकार के अभिषेक किए जाते हैं, जिनका निकास गोमुख से होता है, जिसे कि सोमसूत्र कहा जाता है, उसे उलांघना भी धार्मिक विधि के विपरीत माना जाता है। शास्त्रानुसार सोमसूत्र शक्ति-स्रोत है। उसे लांघते समय पैर फैलाने से वीर्य निर्मित और 5 अन्तस्थ वायु के प्रवाह पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इससे देवदत्त और धनंजय वायु के प्रवाह में रुकावट पैदा हो जाती है, जिससे शरीर और मन पर बुरा असर पड़ता है। जानकारी ये भी है कि तृण, काष्ठ, पत्ता, पत्थर, ईंट आदि से ढंके हुए सोमसूत्र का उल्लंघन करने से दोष नहीं लगता है।
ऐसी मान्यता है कि सनातन धर्म में परिक्रमा करने का चलन गणेश जी के मां पार्वती की परिक्रमा करने से शुरू हुआ। इससे जुड़ा प्रसंग ये है कि एक बार मां पार्वती ने अपने पुत्रों कार्तिकेय तथा गणेश को सांसारिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए पृथ्वी का एक चक्कर लगा कर आने का आदेश दिया गया। कार्तिकेय अपनी सवारी मोर पर रवाना हुए, लेकिन गणेश अपने वाहन चूहे को देख विचार में पड़ गए कि वे इस प्रतियोगिता में कैसे प्रथम आएं? उन्होंने एक युक्ति निकाली और मां पार्वती के चक्कर लगाना आरंभ कर दिया। जब कार्तिकेय पृथ्वी का पूरा चक्कर लगा कर लौटे तो देखा कि गणेश वहां पहले से मौजूद हैं तो वे चकित रह गए। इस पर गणेश ने कहा कि मां पार्वती ही संसार हैं। ज्ञान प्राप्ति के लिए उनकी परिक्रमा ही पर्याप्त है, उसके लिए पृथ्वी की परिक्रमा की जरूरत नहीं।
धार्मिक मान्यता के अनुसार केवल शिव जी की आधी परिक्रमा की जाती है, जबकि मां दुर्गा की एक, हनुमानजी व गणेशजी की तीन-तीन, भगवान विष्णु की चार, पीपल के वृक्ष की एक सौ आठ परिक्रमा का विधान है। वैसे सामान्य: तीन परिक्रमा का चलन है।
अब आते हैं इस तथ्य पर कि परिक्रमा आखिर क्यों की जाती है? ऐसी मान्यता है कि पवित्र स्थान, मूर्ति, वृक्ष, पौधा आदि की परिक्रमा से उनके इर्द-गिर्द मौजूद आभा मंडल से सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है। हमारी संस्कृति में मंदिर, नदि, पर्वत, तीर्थ, वृक्ष आदि की परिक्रमा का चलन है। दिलचस्प बात है कि पाणिग्रहण संस्कार में वर-वधू अग्नि की परिक्रमा करते हैं।
जरा और गहरे में जाएं तो देखिए, सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा कर रहे हैं और सभी ग्रहों को साथ लेकर हमारा सूर्य महासूर्य की परिक्रमा कर रहा है। इतना ही नहीं, बल्कि सभी ग्रह अपनी धूरि पर भी कर रहे हैं। अर्थात यह केवल मान्यता का मसला नहीं है, बल्कि परिक्रमा या चक्र में ब्रह्मांड का गहरा रहस्य छुपा हुआ है। हर छोटा बड़े की परिक्रमा कर रहा है। समय की सूचक घड़ी में भी सुइयां चक्राकार घूम रही हैं। चक्र ही परिवर्तन व प्रगति का द्योतक है। निष्कर्ष यही कि परिक्रमा से केन्द्र तुष्ट होता है, वहीं से ऊर्जा प्राप्त होती है।

-तेजवानी गिरधर
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