मैं यह करूंगा, ऐसा कभी नहीं कहता

tejwani girdhar

दोस्तों, आज मैं आपसे एक ऐसा अनुभव साझा कर रहा हूं, जो संभव है आपको अटपटा लगेगा, मगर मैं उससे पल पल गुजर रहा हूं। असल में एक लंबे समय से मेरी आदत में षुमार हो गया है कि जब भी कोई छोटे से छोटा काम करता हूं तो उसके बारे में पहले से यह नहीं कहता कि अमुक काम करूंगा, बल्कि सायास यह कहता हूं कि अमुक काम करने का विचार है। और उसके पीछे है एक खास वजहः-
जैसे यदि किसी ने मुझे कोई निमंत्रण दिया और मुझे जाना ही होगा, यानि जाने का पक्का विचार है तो भी यह नहीं कहता कि मैं आउुंगा। यह कहता हूं कि आने की कोषिष करूंगा, आने का विचार तो है। क्योंकि मैने अपनी डिक्षनरी में से गा, गे, गी हटा दिया है। इस पर कई लोग नाराज हो जाते हैं। कहते हैं कि ऐसा क्यों कह रहे हो। कोषिष और विचार क्या होता है, आपको आना ही है। इस पर मुझे उनको समझाना पडता है कि मैं यह नहीं कह पाउंगा कि मैं आउंगा, क्योंकि जब भी मैंने ऐसा कहा है कि मैं आउुंगा तो मैं नहीं जा पाता हूं। न जाने क्यों? न जाने कौन सी षक्ति मुझे रोक देती है। न जाने कौन रुकावट डालता है। जिन मित्रों को मेरी आदत का पता है, फिर भी वे यदि गलती से कह देते हैं कि कल तो आप वहां जाओगे, मुझे एकदम से गुस्सा आ जाता है। कहता हूं कि जब आपको पता है, फिर भी आप ऐसी हरकत क्यों कर रहे हैं? वे कहते हैं आपने थोडे ही कहा है कि आप जाओगे, यह तो हम कह रहे हैं, तब भी कहता हूं आपका वक्तव्य भी मेरे लिए बाधा जाता है। इसलिए यह कहो कि कल आपका वहां जाने का विचार है ना। यह तो हुई कुछ करने के विशय में वक्तत्व की बात, व्यवहार में भी मैने यह देखा है कि जब तक कोई छोटा मोटा काम हो नहीं जाता, उसके बारे में सुनिष्चित नहीं रह पाता कि हो ही जाएगा। इसे यूं समझिये कि मुझे जयपुर जाना है तो तब तक पक्का न समझिये जब तक कि बस में न बैठ जाउं। इससे भी छोटे काम। मानसिकता यह बन गई है कि किसी छोटे से काम के लिए निकलता हूं तो पहले से संषय रहता है कि वह हो भी पाएगा या नहीं। जैसे जब मोबाइल का रिचार्ज करवाने जा रहा हूं, एटीएम से रुपये निकलवाने जा रहा हूं, कोई बिल जमा करवाने जा रहा हूं, बैंक में रुपए जमा करवाने जा रहा हूं तो संदेह रहता है कि हो पाएगा या नहीं। फिर सोचता हूं कि प्रकृति चाहेगी तो हो जाएगा। षायह यह संपूर्ण मानिसिकता इस कारण बनी है कि यह धारणा पक्की हो गई कि जो कुछ भी मैं कर रहा हूं, वह मैं नहीं कर रहा, प्रकृति कर रही है या प्रकृति करवा रही है। उसकी मर्जी होगी तो हो जाएगा, नही ंतो नहीं।
मेरे कुछ साथी कहते हैं कि चूंकि आप पहले से संषय में रहते हैं, इस कारण आपके कामों में बाधा आती है। आधे मन से किए जा रहे काम के होने में संषय होना ही है। इसलिए संषय छोड कर पक्का यकीन रखिए, काम हो जाएगा। उनकी राय में दम है, उस पर चलने की कोषिष भी करता हूं, मगर चूंकि हजारों घटनाओं के लंबे अनुभव से जो धारणा भीतर पैठ गई है, वह सोच को बदलने ही नहीं देती।

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