यहां मौत पर मनाया जाता है जश्न और जन्म पर शोक

जिंदगी में शायद ही ऐसा देखने को मिलता है, जब मौत पर मातम की बजाय जश्न मनाया जाता है। मगर राजस्थान की एक जनजाति ने जिंदगी के आखिरी सफर को एक उत्सव का रूप दे दिया है। यहां किसी की मौत पर शोक नहीं मनाया जाता बल्कि खुशियां मनाई जाती है। ठीक इसके उलट किसी के जन्म पर जरूर इस समुदाय में शोक मनाया जाता है।

पूरे राज्य में सड़क के किनारे अस्थायी आश्रय बनाकर रहने वाले सातिया समुदाय में करीब 24 परिवार हैं। यह जनजाति मूल रूप से सड़क किनारे पर मर जाने वाले मवेशियों को ठिकाने लगाने के काम पर ही निर्भर है। इस जाति के लोग पढ़े लिखे भी नहीं हैं और आपराधिक कामों में लिप्त इन लोगों को शराब की लत भी है। इस जाति की महिलाएं भी वेश्यावृति के लिए जानी जाती हैं।

एक गांव ऐसा भी जहां मौत पर मातम नहीं जश्न मनाते हैं

तमाम बुराइयों के बावजूद भी कुछ ऐसी खास बातें हैं, जिससे यह जनजाति अपनी खास पहचान बनाने में सफल रही है। समुदाय के किसी व्यक्ति की मौत के बाद का अंतिम संस्कार यहां के लोगों के लिए जश्न का समारोह बन जाता है। समुदाय के एक व्यक्ति जंका सातिया ने बताया, ‘इस मौके पर हम नए कपड़े पहनते हैं, मिठाई, मेवे और शराब आदि खरीदते हैं।’

शव यात्रा के दौरान लोग ढोल-नगाड़ों की थाप नाचते गाते हैं। अंतिम संस्कार के दौरान दावत का आयोजन होता है, जिसमें शराब पीने के साथ लोग वेश्याओं के साथ नाचते हैं। शव के पूरी तरह से जल जाने तक यह सब चलता रहता है।

समुदाय के एक अन्य व्यक्ति की नजरों में जन्म और जीवन भगवान की ओर से दिया गया अभिशाप है। उसका कहना है, ‘मौत हमारे लिए एक उत्सव है, जिससे आत्मा शारीरिक बंधन से आजाद हो जाती है।’ इस समुदाय पर रिसर्च करने वाले वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार सक्सेना का कहना है कि सातिया समुदाय के लोग जीवन को अभिशाप मानते हैं। उन्होंने कहा, ‘हालांकि इस समुदाय में अगर लड़की पैदा होती है, तो उसे ज्यादा तवज्जो दी जाती है क्योंकि वह वेश्यावृति के जरिए परिवार के लिए पैसा कमा सकती है।’

इस जनजाति में जब किसी का जन्म होता है तो गहरा शोक मनाया जाता है और नवजात शिशु को बददुआएं दी जाती हैं। परिवार में कई दिनों तक खाना भी नहीं बनाया जाता है। शहर से दूर सड़कों पर जीवन बिताने वाले यह लोग अक्सर बाहरी लोगों से दूरियां बनाए रखते हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता अनवर अहमद ने बताया कि इंदिरा आवासीय योजना के तहत इस समुदाय के लोगों को पक्के घर भी मुहैया कराए गए, लेकिन इन्होंने उसे बेच दिया। इस जाति के लोग अपने परिवार के बच्चों को स्कूल भी नहीं भेजते हैं। विरासत एवं प्रकृति फोटोग्राफर एएच जैदी का कहना है कि इनके वेलफेयर के लिए अब तक कोई भी एनजीओ या सामाजिक संगठन आगे नहीं आया है।

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