वरिष्ठ नाटककार डा. अर्जुनदेव चारण का संचिना संस्थान ने किया सम्मान

शाहपुरा (भीलवाड़ा)
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के अध्यक्ष व वरिष्ठ नाटककार डाॅ. अर्जुनदेव चारण ने कहा कि परंपरा का अर्थ पुरानापन नहीं है। परंपरा निरंतर प्रवाहमान है, इसका अर्थ उतरोतर विकास है। हमें अपनी परंपरा को सही अर्थों में समझने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि सिर्फ नाटक ही है, जिसमें व्यक्ति रोने के बाद भी अभिनेता की सराहना करता है। यही नाटक की सबसे बड़ी विशेषता है।
डाॅ. अर्जुनदेव चारण गुरूवार को शाहपुरा में गांधीपुरी स्थित संचिना कला संस्थान कार्यालय में संस्थान की ओर से आयोजित अभिनंदन समारोह को संबोधित कर रहे थे। डा. चारण राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के उपाध्यक्ष बनने के बाद पहली बार शाहपुरा पहुंचे। यहां उनका शाहपुरा की सांस्कृतिक संस्थाओं संचिना, साहित्य सृजन कला संगम व प्रताप सिंह बारहठ संस्थान की ओर से डा. चारण का अभिनंदन किया गया। संचिना अध्यक्ष रामप्रसाद पारीक, महामंत्री सत्येंद्र मंडेला, साहित्य सृजन कला संगम के सचिव डा. कैलाश मंडेला व प्रताप सिंह बारहठ संस्थान के सचिव कैलाश सिंह झाड़ावत ने डा. चारण का साफा बंधवा कर व शाॅल ओढ़ा कर सम्मान किया। ओमप्रकाश सनाठ्य, गोपाल पंचोली, राजकुमार बैरवा, कैलाश सिंह मेहडू, अधिवक्ता दीपक पारीक ने उनको स्मृति चिनह भेंट किया। डा. कैलाश मंडेला ने स्वलिखित दो पुस्तकें भी डा. चारण को भेंट की।
कार्यक्रम को ंसबोधित करते हुए डा. चारण ने कहा कि समाज को संस्कारित करने का सबसे श्रेष्ठ माध्यम होता है साहित्य। समाज को सही मार्गदर्शन देने में साहित्य ने हर युग में अपनी भूमिका रही है। उन्होंने शाहपुरा जैसे छोटे स्थान पर साहित्यिक गतिविधियों विशेषकर नाटक के माध्यम से हो रही संचिना की गतिविधियों पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि कलाकार स्वप्रेरणा से इस क्षेत्र में आता है। उसको समाज का सही दिशा देने के लिए सकारात्मकता से सतत प्रयास करते रहना चाहिए। नये सृजन से ही नये समाज का निर्माण हो सकेगा।
डॉ.चारण ने कहा कि सृजन का महत्व कालजयी है। युवा इस महत्व को समझते हुए लेखन और पढने में अपनी रूचि जाग्रत करे। उन्होंने कहा कि नाटक को पांचवे वेद के रूप में माना गया है हम यह बात जानते तो है पर मानते नहीं। भरत मुनि के नाट्य शास्त्र की व्याख्या करते हुए बताया कि जब नाटक की रचना हुई तो उसे खेलने को कहा गया तब देवताओं ने उसमें असमर्थता जताई। तब ऋषियों ने नाटक खेला। उन्होंने कहा कि आज भी हर अभिनेता ऋषि है ये उसे जानना चाहिए। उसी अनुसार आचरण, व्यवहार और जीवन जीना चाहिए। इस आचरण से ही उनमें श्रेष्ठता हासिल होगी।
डॉ.चारण ने कहा कि सरकारी स्तर पर कला के संरक्षण के लिए सार्थक प्रयास होने चाहिए। अभी ऐसा हो नही रहा है। लोकतंत्र के इस दौर में राजनेताओं को वोट की जरूरत होने कला की ओर उनका ध्यान जा नहीं रहा है, ऐसे दौर में कलाकारों को अपने स्तर पर कला के संवर्धन के प्रयास तो करने होगें।

मूलचन्द पेसवानी

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