दोस्तो, नमस्कार। टीम एज में मैं थोडा सा पागल था। कोई कहता था कि मेरा दिमाग थोडा सरका हुआ है तो कोई फिलोसोपर कहा करता था। तब एक ही सवाल दिमाग में कुलबुलाया करता था कि इस धरती पर कितने भगवान, ऋशि-मुनि, दार्षनिक, विद्वान, धर्मगुरू अवतरित हुए, मगर हम जैसे जैसे कथित रूप से सभ्य होते जा रहे हैं, उतने ही चालाक और भ्रश्ट बनते जा रहे हैं। धर्म और पंथ के नाम पर एक दूसरे के दुष्मन बने हुए हैं। क्यों? क्या महात्माओं का जन्म बेमानी हो गया? फिर गीता का सुपरिचित सूत्र संज्ञान में आया। श्रीकृश्ण कहते हैं, यदा यदा हि धर्मस्य ग्यानिर्भिवति भारतः, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मनं सृजाम्यहम। जब जब धर्म की हानि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं, अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं। यानि प्रकृति में ऐसी व्यवस्था है कि धर्म की हानि होगी ही, वह अवष्यंभावी है। मतलब अंधेरा षाष्वत है, उसे मिटाने को प्रकाष को आना पडता है। और जैसे ही प्रकाष मद्धम पडता है, अंधेरा उभर कर आ जाता है। कदाचित यही वजह है कि अवतार आते हैं, मगर फिर फिर आदमी अधार्मिक होता रहता है। इस सिलसिले में किसी षायर का यह षेर ख्याल में आता है- हजारों खिज्र पैदा कर चुकी है नस्ल आदम की, ये सब तस्लीम, मगर आदमी अब तक भटकता है। खिज्र यानि पथ प्रदर्षक और तस्लीम का मतलब स्वीकार। है न कडवी सच्चाई। बहरहाल, उसी दौर में मेरे अंग्रेजी के षिक्षक, जो कि दार्षनिक थे, उन्होंने उपदेष दिया कि दुनिया की चिंता छोडो, फालतू के सवाल करना बंद करो, यह दुनिया ऐसी ही है, कभी बुरी कभी भली। जब अवतार भी इसे स्थाई रूप से नहीं सुधार पाए तो तुम एक मामूली से इंसान क्या कर पाओगे? चिंता सिर्फ अपनी करो, चिंतन केवल आत्म कल्याण का किया करो।
