सुख-सौभाग्य एंव समृद्धि का पर्व है गणगौर

DSCN2823भारतीय संस्कृति का लक्ष्य है जीवन का प्रत्येक क्षण व्रत त्यौहार-पर्वोत्सव के आन्नद व उल्लास से परिपूर्ण एंव लाभकारी हो – इसीलिये भारतीय जन जीवन व्रत व त्यौहार से भरा हुआ है इन व्रत त्यौहारो के पीछे भारतीय सभ्यता एंव संस्कृति में धर्म का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान होता है। जिसमें राजस्थानी संस्कृति तो पर्व एंव त्यौहारो का पर्याय है उन्ही मे से गणगौर का पर्व अति प्राचीन एंव सर्वाधिक लोकप्रिय है ईसर एंव गणगौर षिव एंव पार्वती का ही सवरूप है। जिसका वर्णण षिव पुराण मंे भी मिलता है। गणगौर का पर्व अत्यन्त प्राचीन एंव देष के कोने-कोने में मनाया जाने वाला पर्व है। जिसके लिये ब्रज भूमि में भगवान कृष्ण के अष्ठ सखाओं (कुंभन दास जी, सुरादास जी, कृष्णदास जी ने गणगौर पर्व को राधा-कृष्ण से जोडते हुये अनेक पदो की रचना की है। जो आज भी पुष्टि मार्ग पंथ में प्रचलित है। पुष्टिमार्गिय मन्दिरों में गणगौर के पद आज भी गाये जाते है।)
DSCN2829यह राजस्थान का महत्वपूर्ण त्यौहार है जो कुमारियों के लिये मनोवांछित वर-प्राप्ति एंव सुहागिनो के लिये अखंड सुहाग प्राप्ति की कामना से पूरित है। ‘गणगौर’ यह षब्द ‘गण’ और ‘गौर’ इन दो षब्दो से बना है ‘गण का अर्थ षिव तथा ‘गौर’ का अर्थ पार्वती होता है साथ ही ‘षिव’ के लिए ‘ईसर जी’ षब्द भी प्रचलित है। होली के दूसरे दिन छारंडी (धुलंडी) से गणगौर (पार्वती) पूजा प्रारम्भ हो जाती है 16 दिन तक चलती है। दीवार पर 8 कुमकुम की व 8 काजल की बिन्दियॉं लगाई जाती है, भूमि पर गोबर व मिट्टी का चौका लगाकर उसपर पट्टा रखकर उस पर दूब व जवॉंरे वाली कून्डी रखी जाती है, जल का कलष रखा जाता है, हरी दूब व कुमकुम से पूजा की जाती है, ‘जवॉंरे’ उगाये जाते है। सुहागिन स्त्रियॉं एंव कुमारियॉं सोलह दिन तक प्रतिदिन सुबह पूजा करती है एंव संध्या के समय वस्त्राभूषण से सुसज्जित होकर कलष लेकर गीतों का गुलाल बिखेरती हुई
बाग-बगीचों में जाती है और वहॉं से अपने अपने कलष में जल भर कर उन्हे पुष्पमालाओं से सजा अपने सह पर रखकर वापस उमंग-उल्लास में डूबी मधुर गीतो की स्वर-लहरियॉं बिखेरती हुई लौटती है और फिर कलष गणगौर के पास रख दिये जाते है, गणगौर को पानी पिलाया जाता है और बाद में ‘घूमर नृत्य’ भी किया जाता है जो राजस्थान का सर्वाधिक प्रचलित एंव लोकप्रिय नृत्य है पूजन के एक दिन पूर्व गौर बिन्दौरा निकाला जाता है जिसमें आटे का चौमुखा दीपक गेहॅुं की घूघरी एंव पानी के कलष से ईषर एंव गणगौर को भोग लगाया जाता हैं एंव गणगौर के प्रचलित गीत गाये जाते है। पूजन के अन्तिम दिन अर्थात चैत्र षुक्ला तृतीया को गणगौर का विषेष पूजन होता हैं समयाभाव के कारण जो भी कुमारी या विवाहिता 16 दिन तक पूजा नही कर पाती वे सभी इस तीज के दिन तो अवष्य ही पूजा करती है। दीवार पर रंगो की गणगौर चित्रित की जाती है तथा मिट्टी का काष्ठ के ईसर-गणगौर को लकडी की चौकी पर विराजमान करते है फिर ‘जवॉंरा’, जल, हरी ताजी दूब, कुमकुम, काजल मेंहदी, लच्छा, हलुवा-पूरी, सोलह फल (विषेष पकवान), गेहुॅं आदि से पूजा की जाती है। उन्हे चेन में बिठाकर झूला झूलाया जाता है गीत गाये जाते है एंव दो महिलाए एंव कुमारियो को जोड़ा बनाकर कहानी सुनी जाती है। एंव संध्या को बुलावणी (विसर्जन) के साथ उपरोक्त उत्सव का समापन होता है।
-श्रीमती अरूणा गर्ग
9829793705
लोक पर्व एंव संस्कृति सागर संस्थान
10/ 388 गर्ग भवन, सुन्दर विलास, अजमेर

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