गुरु वही जो हरिहिं मिलावै

shahpura gurumahimaहिन्दू पंचांग के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरु की पूजा करने की परंपरा को गुरु पूर्णिमा पर्व के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व आत्मस्वरूप का ज्ञान पाने के अपने कर्तव्य की याद दिलाने वाला, मन में दैवी गुणों से विभूषित करनेवाला, सद्गुरु के प्रेम और ज्ञान की गंगा में बारम्बार डूबकी लगाने हेतु प्रोत्साहन देने वाला है। गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है, क्योंकि मान्यता है कि भगवान वेद व्यास ने पंचम वेद महाभारत की रचना इसी पूर्णिमा के दिन की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्य ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरम्भ किया।
गुरु वही जो हरिहिं मिलावै। इन करनी बिनु गुरु न कहावै।।ÓÓशास्त्रों में तो गुरु को साक्षात् परम ब्रह्म कहा गया है। यथा- ‘गुरुब्र्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देव महेष्वर:। गुरु: साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरुवे नम:।। (गुरुगीता)
गुरु वह है जो शिष्य के मोहरूपी अंधकार को दूर करता है। यहां ‘गुरुÓ शब्द के दो खंड यथा ‘गुÓ- यानि जहां घनघोर अज्ञान रूपी अंधकार है और ‘रुÓ-यनि उस अंधकार को हरने वाला। यनि ‘गुरुÓ शब्द का अर्थ यह हुआ कि जो अज्ञान रूपी घनघोर आंधकार का नाश कर ज्ञान रूपी प्रकाश को फैलाने का काम करे वही गुरू है।
गुरु पर्व सभी के लिए अपने गुरु को नमन करने का अवसर है। पौराणिक काल से ही गुरु ज्ञान के प्रसार के साथ-साथ समाज के विकास का भी बीड़ा उठाते रहे हैं। गुरु हमारे जीवन को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने और उसमें सार्थक सुधार करने की कोशिश करते हैं। गुरु का अर्थ ही है अंधकार को दूर करने वाला।
प्राचीन काल में गुरु शिष्य परम्परा के अनुसार शिक्षा ग्रहण की जाती थी। इस दिन शिष्यगण अपने घर से गुरु आश्रम जाकर गुरु की प्रसन्नता के लिए अन्न, वस्त्र और द्रव्य से उनका पूजन करते थे। उसके उपरान्त ही उन्हें धर्म ग्रन्थ, वेद, शास्त्र तथा अन्य विद्याओं की जानकारी और शिक्षण का प्रशिक्षण मिल पाता था. गुरु को समर्पित इस पर्व से हमें भी शिक्षा लेते हुए हमें उनकी पूजा करनी चाहिए और उनके प्रति ह्रदय से श्रद्धा रखनी चाहिए।
गुरु के महत्व पर संत शिरोमणि तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है कि-
गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
जों बिरंचि संकर सम होई।।
भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, गीता, गुरुग्रन्थ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों एवं सभी महान संतों द्वारा गुरु की महिमा का गुणगान किया गया है। गुरु और भगवान में कोई अन्तर नहीं है। गुरू मनुष्य रूप में नारायण ही हैं।
किसी भी प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान हो, उसे किसी दक्ष गुरु से ही सीखना चाहिए।
सबसे बड़ा तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं जिनकी कृपा से फल अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरुदेव का निवास स्थान शिष्य के लिए तीर्थ स्थल है। उनका चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष प्रदान करने वाला है। गुरु से इन सबका फल अनायास ही मिल जाता है। ऐसी गुरु की महिमा है।
समर्पण भाव से ही गुरु का प्रसाद शिष्य को मिलता है। शिष्य को अपना सर्वस्व श्री गुरु देव के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। इसी संदर्भ में यह उल्लेख किया गया है कि
यह तन विष की बेलरी, और गुरू अमृत की खान, शीश दियां जो गुरू मिले तो भी सस्ता जान।
गुरु ज्ञान गुरु से भी अधिक महत्वपूर्ण है। प्राय: शिष्य गुरु को मानते हैं पर उनके संदेशों को नहीं मानते। सद्गुरू एक ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को दूर करने एवं उसे बैकुंठ धाम में पहुंचाने का दायित्व गुरु का होता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु रूप में शिष्य अर्जुन  को यही संदेश दिया था-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्याि माम शुच:।। (गीता 18/66)
अर्थात् सभी साधनों को छोडक़र केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए।
दुनिया में सबसे बड़ा तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं, जिनकी कृपा से फल अनायास ही प्राप्त होते जाते हैं। गुरु का निवास शिष्य के लिए तीर्थस्थल के समान है। वास्तव में गुरु के मन में हमेशा यही विचार होते हैं कि उनका शिष्य सर्वश्रेष्ठ हो और उसके गुणों की सर्वसमाज में पूजा हो। आज के आधुनिक युग में भी गुरु की महत्ता में जरा भी कमी नहीं आई है। एक बेहतर भविष्य के निर्माण में गुरु का विशेष योगदान होता है, फिर चाहे वह शिक्षा, कला, योग या अन्य कोई क्षेत्र हो। गुरु का अनादर करने वाला चाहे कितने भी मेहनत और तिकड़म क्यों न कर ले, वह कभी सफल नहीं हो सकता, इसलिए जीवन में सफलता और सम्मान पाने के लिए सभी को अपने गुरुओं से आशीर्वाद प्राप्त करने की हरसंभव कोशिश करनी चाहिए। ज्ञान के प्रसार में कहीं कोई कमी न आए, इसके लिए यह आवश्यक है कि समाज गुरु को अधिकाधिक सम्मान देता रहे।
वास्तव में गुरु की महिमा का पूरा वर्णन कोई कर ही नहीं सकता। गुरु की महिमा तो भगवान से भी कहीं अधिक है, इसीलिए शास्त्रों में गुरु का महत्व बहुत ऊंचा है। गुरु की कृपा के बिना भगवान की प्राप्ति असंभव है।
मूलचंद पेसवानी
मूलचंद पेसवानी

गुरु की गुरुताई की सच्चाई का वास्तविक तात्पर्य यह है कि गुरु स्वयं सदाचरण करते हुए आश्रित जनों से सदाचरण करवाबें। क्योंकि आचार्य शब्द की व्युत्पत्ति ही- ‘आचरति आचारयतीति वा आचार्य:।Ó अर्थात जो पहले स्वयं सदाचरण करे और फिर वही सदाचरण अपने आश्रित जनों से करवाबे वही आचार्य कहलाने के योग्य है। केवल दूसरे को सदाचरण का उपदेशदेना और स्वयं सदाचरण न करना आचार्यत्व की बिडंबना मात्र है ऐसे आचार्यों के उपदेश भी व्यर्थ जाते हैं।

मूलचन्द पेसवानी. 68गांधीपुरी, शाहपुरा(भील.)
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