विनायक चतुर्थी को ‘गणेशोत्सव’ के रूप में सारे विश्व में हर्षोल्लास व श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। भारत में इसकी धूम यूं तो सभी प्रदेशों में होती है, परन्तु विशेष रूप से यह महाराष्ट्र में मनाया जाता है। महाराष्ट्र में भी पुणे का गणेशोत्सव जगत प्रसिद्ध है।
महाराष्ट्र में गणेशजी को मंगलकारी देवता के रूप में व मंगलपूर्ति के नाम से पूजा जाता है। दक्षिण भारत में गणेशजी की लोकप्रियता ‘कला शिरोमणि’ के रूप में है। मैसूर तथा तंजौर के मंदिरों में गणेश की नृत्य-मुद्रा में अनेक मनमोहक प्रतिमाएं हैं।
महाराष्ट्र में शाहतवान, राष्ट्रकूट, चालुक्य आदि राजाओं ने गणेशोत्सव की प्रथा चलायी थी। पेशवाओं ने गणेशोत्सव को बढ़ावा दिया। कहते हैं कि पुणे में कस्बा गणपति नाम से प्रसिद्ध गणपति की स्थापना छत्रपति शिवाजी महाराज की माताजी जीजाबाई ने की थी। छत्रपति शिवाजी महाराज भी श्रदा के साथ गणेशजी की उपासना करते थे।
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणोत्सव को को जो स्वरूप दिया उससे गणेश उत्सव राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गये थे। तिलक के प्रयास से पहले गणेश पूजा परिवार तक ही सीमित थी। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणेश पूजा को सार्वजनिक महोत्सव का रूप देते समय उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने तथा आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का सशक्त माध्यम बनाया और उसे एक आंदोलन का स्वरूप दे दिया। इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में जिस गणेशोत्सव का सार्वजनिक पौधरोपण किया था वह पोधा अब विराट वट वृक्ष का रूप ले चुका है। वर्तमान में केवल महाराष्ट्र में ही 50 हजार से ज्यादा सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल है। इसके अलावा आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और गुजरात एवम् अन्य राज्यों में काफी संख्या में गणेशोत्सव मंडल है। (गणेश कि उपसना करने वाला सम्प्रदाय गाणपतेय कहलाते है)।
महाराष्ट्र का मुख्य पर्व ‘विनायक चतुर्थी’ के उत्सव को सम्पूर्ण महाराष्ट्र का मुख्य पर्व भी कहा जा सकता है। इस दिन लोग मौहल्लों और चौराहों पर प्रथम पूज्य भगवान गणेशजी की मूर्ति की स्थापना करते है। आरती और भगवान श्री गणेश के जयकारों से सारा माहौल गुंज रहा होता है। इस उत्सव का अंत अनंत चतुर्दशी के दिन गणेश की मूर्ति समुद्र में विसर्जित करने के बाद होता है।
कैसे मनाएँ—गणेश चतुर्थी
इस दिन प्रात:काल स्नानादि से निवृत्त होकर सोने, तांबे, मिट्टी अथवा गोबर की गणेशजी की प्रतिमा बनाई जाती है। गणेशजी की इस प्रतिमा को कोरे कलश में जल भरकर, मुंह पर कोरा कपड़ा बांधकर उस पर स्थापित किया जाता है। फिर मूर्ति पर (गणेशजी की) सिन्दूर चढ़ाकर षोडशोपचार से पूजन करना चाहिए।
गणेशजी को दक्षिणा अर्पित करके 21 लड्डूओं का भोग लगाने का विधान है। इनमें से 5 लड्डू गणेशजी की प्रतिमा के पास रखकर शेष ब्राह्मणों में बांट देने चाहिए। गणेश जी की आरती और पूजा किसी कार्य को प्रारम्भ करने से पहले की जाती है और प्रार्थना करते हैं कि कार्य निर्विघ्न पूरा हो।
गणेशजी का पूजन सायंकाल के समय करना चाहिए। पूजनोपरांत दृष्टि नीची रखते हुए चंद्रमा को अर्घ्य देकर, ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा भी देनी चाहिए।
इस प्रकार चंद्रमा को अर्घ्य देने का तात्पर्य है कि जहां तक संभव हो आज के दिन चंद्रमा के दर्शन नहीं करने चाहिए। क्योंकि इस दिन चंद्रमा के दर्शन करने से कलंक का भागी बनना पड़ता है। फिर वस्त्र से ढका हुआ कलश, दक्षिणा तथा गणेशजी की प्रतिमा आचार्य को समर्पित करके गणेशजी के विसर्जन का विधान उत्तम माना गया है।
गणेशजी का यह पूजन करने से विद्या, बुद्धि की तथा ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति तो होती ही है, साथ ही विघ्न-बाधाओं का भी समूल नाश हो जाता है।
घर में कैसे स्थापित करें गणपति की मूर्ति?
भक्त विसर्जन के लिए ही नहीं घर के मंदिर में पूजा के लिए भी गणपति की मूर्ति रखते हैं, लेकिन कुछ बातों का ख्याल रखना जरूरी है। शास्त्रों के मुताबिक गणेश प्रतिमा का मुंह दक्षिण दिशा की तरफ नहीं होना चाहिए। ध्यान रखना चाहिए कि विघ्नहर्ता की मूर्ति अथवा चित्र में उनके बाएं हाथ की ओर सूंड घुमी हुई हो। दाएं हाथ की ओर घूमी हुई सूंड वाले गणेश जी हठी होते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि दाएं सूंड वाले गणपति देर से भक्तों पर प्रसन्न होते हैं।
क्यों किया जाता है गणपति विसर्जन?
गणपति बप्पा मोरया, मंगलमूर्ति मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ इस नारे के साथ देश में जगह-जगह गणपति की मूर्ति विसर्जित की गई। लेकिन क्या आप जानते हैं कि धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी से अगले 10 दिन तक गणपति को वेद व्यास जी ने भागवत कथा सुनाई थी। इस कथा को गणपति जी ने अपने दांत से लिखा था।
दस दिन तक लगातार कथा सुनाने के बाद वेद व्यास जी ने जब आंखें खोली तो पाया कि लगातार लिखते-लिखते गणेश जी का तापमान बढ़ गया है। वेद व्यास जी ने फौरन गणेश जी को पास के कुंड में ले जाकर ठंडा किया। इसीलिए भाद्र शुक्ल चतुर्थी को गणेश स्थापना की जाती है। और भाद्र शुक्ल चतुर्दशी यानी अनंत चतुर्दशी को शीतल जल में विसर्जन किया जाता है।
कैसे होता है गणपति विसर्जन?
भगवान गणपति जल तत्व के अधिपति माने जाते हैं। इसी कारण अनंत चतुर्दशी को गणपति पूजा के बाद ही मूर्ति का विसर्जन किया जाता है। शास्त्रों के मुताबिक मिटटी की बनी गणेश जी की मूर्तियां का जल में विसर्जन अनिवार्य है। इसके लिए घर में ही पवित्र पात्र में गंगाजल की बूंदें और शुद्ध जल मिलाकर मूर्ति का विसर्जन किया जा सकता है। हालांकि बड़ी मूर्तियों को समुद्र और नदी में विसर्जित करने की परंपरा रही है, लेकिन पर्यावरण की चिंता की वजह से अब अलग बड़े टैंक बना कर, उसमें विसर्जन का चलन बढ़ रहा है।
गणेश (तिल) चतुर्थी व्रत कथा
पौराणिक गणेश कथा के अनुसार एक बार देवता कई विपदाओं में घिरे थे। तब वह मदद मांगने भगवान शिव के पास आए। उस समय शिव के साथ कार्तिकेय तथा गणेशजी भी बैठे थे।
देवताओं की बात सुनकर शिवजी ने कार्तिकेय व गणेशजी से पूछा कि तुममें से कौन देवताओं के कष्टों का निवारण कर सकता है। तब कार्तिकेय व गणेशजी दोनों ने ही स्वयं को इस कार्य के लिए सक्षम बताया। इस पर भगवान शिव ने दोनों की परीक्षा लेते हुए कहा कि तुम दोनों में से जो सबसे पहले पृथ्वी की परिक्रमा करके आएगा वही देवताओं की मदद करने जाएगा।
भगवान शिव के मुख से यह वचन सुनते ही कार्तिकेय अपने वाहन मोर पर बैठकर पृथ्वी की परिक्रमा के लिए निकल गए। परंतु गणेशजी सोच में पड़ गए कि वह चूहे के ऊपर चढ़कर सारी पृथ्वी की परिक्रमा करेंगे तो इस कार्य में उन्हें बहुत समय लग जाएगा।
तभी उन्हें एक उपाय सूझा। गणेश अपने स्थान से उठें और अपने माता-पिता की सात बार परिक्रमा करके वापस बैठ गए। परिक्रमा करके लौटने पर कार्तिकेय स्वयं को विजेता बताने लगे। तब शिवजी ने श्रीगणेश से पृथ्वी की परिक्रमा ना करने का कारण पूछा। तब गणेश ने कहा – ‘माता-पिता के चरणों में ही समस्त लोक हैं।’
यह सुनकर भगवान शिव ने गणेशजी को देवताओं के संकट दूर करने की आज्ञा दी। इस प्रकार भगवान शिव ने गणेशजी को आशीर्वाद दिया कि चतुर्थी के दिन जो तुम्हारा पूजन करेगा और रात्रि में चंद्रमा को अर्घ्य देगा उसके तीनों ताप यानी दैहिक ताप, दैविक ताप तथा भौतिक ताप दूर होंगे।
इस व्रत को करने से व्रतधारी के सभी तरह के दुख दूर होंगे और उसे जीवन के भौतिक सुखों की प्राप्ति होगी। पुत्र-पौत्रादि, धन-ऐश्वर्य की कमी नहीं रहेगी। चारों तरफ से मनुष्य की सुख-समृद्धि बढ़ेगी।
डा.जे.के.गर्ग
सन्दर्भ:— मुक्त ज्ञानकोश, विकिपीडिया,गूगल सर्च आदि