क्यों आवश्यक है पितरों का श्राद्ध

a1हर संतान के लिए हिन्दू धर्म में यह कर्त्तव्य बनाया गया है की वह अपने पिता और पितरों का श्राद्ध अवश्य करे |यह अति आवश्यक है |इसका धार्मिक और गूढ़ कारण है |संतानोत्पादन से दशमद्वार से प्राण त्याग की शक्ति क्षीण हो जाती है अतः पिता की इस हानि का दायित्व पुत्र पर आ जाता है ,क्योकि उसी को उत्पन्न करने के कारण यह क्षमता क्षीण होती है |दाहकर्म के समय पुत्र पिता की कपालास्थी को बांस से तीन बार स्पर्श करता हुआ अंत में तोड़ डालता है |जिसका अर्थ यही है की पुत्र श्मशानस्थ समस्त बांधवों के सामने संकेत करता है की अगर पिता जी मुझ जैसे पामर जंतु को उत्पन्न करने का प्रयास न करते तो ब्रह्मचर्य के बल से उनके दशमद्वार से प्राण निकलते और वे मुक्त हो जाते |परन्तु मेरे कारण अर्थात मुझे उत्पन्न करने के कारण उनकी यह शक्ति नष्ट हो गयी |में तीन बार प्रतिज्ञा करता हूँ की इस कमी को श्राद्धादी और्ध्वदेहिक वैदिक क्रियाओं द्वारा पूरी करके पिता जी का अन्वर्थ -“पु “नामक नरक से “त्र “त्राणकरने वाला पुत्र बनूँगा |वास्तव में शास्त्र में पुत्र की परिभाषा करते हुए पुत्रत्व का आधार श्राद्ध कर्म को ही प्रकट किया गया है |यथा –
जीवतो वाक्यकरणान्म्रिताहे भूरिभोजनात | गयायाँ पिंडदानाच्च त्रिभिः पुत्रस्य पुत्रता ||
जीवित माता पिता आदि गुरुजनों की आज्ञा का पालन करने से और उनके परलोक जाने पर संस्कार पिंड पत्तल -ब्रह्मभोज आदि कृत्य करने से तथा गया आदि तीर्थ में जाकर पिंडदान करने से सुपुत्र होना सिद्ध होता है |उक्त तीनो कार्यों का सम्पादन ही योग्य पुत्रत्व का सूचक है |
Arun babu psrashar

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