कल्पना से परे है सफ़ेद रण का द्रश्य

a1a2a3a4४. दिन ढल रहा था, मन लौटने को नहीं मान रहा था पर उधर सूरज ढलते ढलते सुदूर कहीं नमक के क्षितिज में डूब रहा था, मन ही मन नवीन, रानू, आरू के प्यारे साथ को धन्यवाद देते हुए और सफ़ेद रण को अलविदा कहते, बाय बाय करते हम पुनः गांधीधाम के ढाई घंटे के सफ़र के लिए कार पार्किंग की ओर कदम बड़ाने लगे. मन में ये विचार चल रहे थे की अजमेर पहुँचते ही सभी परिवार के सदस्यों व मित्रों से इन सुखद एहसासों को, प्रकर्ति के इन अनमोल खजानों से मिली अनुभूति को शेयर करूंगा. लेकिन लोटते ही वाइरल फीवर से पीड़ित होने के कारण आज में आप सब को ये संस्मरण अर्पित करता हूँ, आप सब भी नेचर के भिन्न भिन्न रूपों का समय समय पर आनंद लेते रहें और स्वयं में नयी ऊर्जा का संचार करते रहें.

चूँकि कच्छ के इस सफ़ेद रण को जाने के वास्ते सिर्फ २ ही महीनों का वक़्त होता है, बाकी समय यहाँ समुद्र का पानी वापस भर जाता है, अतः यहाँ सब कुछ कच्चे निर्माण की रूप में था, लेकिन था अतुलनीय और अकल्पनीय.
कार पार्किंग के बाद करीब २ km तक पैदल या घुड सवारी या ऊंट गाडी द्वारा सफ़ेद रण तक पहूँचने के तीन विकल्प थे हमारे पास. हमने ऊँट गाड़ी को चुना. बच्चों और बूदों की सांगत में हां हूँ करते करते लास्ट पॉइंट पर जब उतरे और जमीन पर पैर रखे तो एहसास हुआ की हम रेत के समंदर में नहीं, पानी के समंदर में नहीं बल्कि नमक के समंदर में पहुँच गए थे. बहुत कौतिहल जाग रहा था मन में जब में अपने जूतों से उस नमक को थोक थोक कर, उछाल उछाल कर निश्चय कर लेना चाहता था की ये वाकई नमक ही है. जब कोई शक नहीं बचा की वो नमक ही है तो भी विश्वास नहीं हो रहा था.

डा. अशोक मित्तल

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