देवी छिन्नमस्ता जयंती पर करें व्रत-पूजा

यौन वासना के दमन का प्रतिनिधित्व करती हैं मां छिन्नमस्ता
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आज यानी 18 मई को छिन्नमस्ता जयंती है। छिन्नमस्ता देवी को चिंतपूर्णी भी कहा जाता है। उनके इस रूप की चर्चा शिव पुराण और मार्कण्डेय पुराण में भी देखने को मिलता है। देवी चंडी ने राक्षसों का संहार कर देवताओं को विजय दिलायी। छिन्नमस्ता जयंती के दिन व्रत रखकर पूजा करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। मां छिन्नमस्ता चिंताओं का हरण करने वाली हैं। देवी के गले में हड्डियों की माला मौजूद है और कंधे पर यज्ञोपवीत है। शांत भाव से देवी की आराधना करने पर शांत स्वरूप में प्रकट होती हैं। लेकिन उग्र रूप में पूजा करने से उग्र रूप धारण करती हैं। दिशाएं इनके वस्त्र हैं। साथ ही देवी छिन्नमस्ता की नाभि में योनि चक्र पाया जाता है। देवी की आराधना दीवाली के दिन से शुरू की जानी चाहिए। छिन्नमस्ता देवी का वज्र वैरोचनी नाम जैन, बौद्ध और शाक्तों में एक समान रूप से प्रचलित है। देवी की दो सखियां रज और तम गुण की परिचायक हैं। देवी स्वयं कमल के पुष्प पर विराजमान हैं जो विश्व प्रपंच का द्योतक है।

दस महाविद्याओं में पांचवें स्थान पर हैं देवी छिन्नमस्ता
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अपना खुद बलिदान देने वाली देवी छिन्नमस्ता दस महाविद्याओं में पांचवें स्थान पर हैं। ये बुद्धि और ज्ञान से संबंधित देवी हैं।
छिन्नमस्ता दो शब्दों के योग से बना है- प्रथम छिन्न और द्वितीय मस्ता। इस प्रकार जिनका मस्तक देह से पृथक हैं वह छिन्नमस्ता कहलाती हैं। देवी अपने मस्तक को अपने ही हाथों से काट कर, अपने हाथों में धारण करती हैं तथा प्रचंड चंडिका जैसे अन्य नामों से भी जानी जाती हैं।
देवी एक प्रचंड डरावनी, भयंकर तथा उग्र रूप में विद्यमान हैं। समस्त देवी देवताओं से पृथक देवी छिन्नमस्ता का स्वरूप हैं, देवी स्वयं ही तीनों गुणों; सात्विक, राजसिक तथा तामसिक, का प्रतिनिधित्व करती हैं, त्रिगुणमयी सम्पन्न हैं। देवी छिन्नमस्ता की आराधना जैन तथा बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं तथा बौद्ध धर्म में देवी छिन्नमुण्डा वज्रवराही के नाम से विख्यात हैं।
देवी जीवन के परम सत्य मृत्यु को दर्शाती हैं, वासना से नूतन जीवन के उत्पत्ति तथा अंतत: मृत्यु की प्रतीक स्वरूप हैं देवी। देवी, स्व-नियंत्रण के लाभ, अनावश्यक तथा अत्यधिक मनोरथों के परिणाम स्वरूप पतन, योग अभ्यास द्वारा दिव्य शक्ति लाभ, आत्म-नियंत्रण, बढ़ती इच्छाओं पर नियंत्रण का प्रतिनिधित्व करती हैं। देवी, योग शक्ति, इच्छाओं के नियंत्रण और यौन वासना के दमन की विशेषकर प्रतिनिधित्व करती हैं।

देवी छिन्नमस्ता के प्रादुर्भाव की कथा
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नारद-पंचरात्र के अनुसार, एक बार देवी पार्वती अपनी दो सखियों के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान के लिए गई। नदी में स्नान करते हुए, देवी पार्वती काम उत्तेजित हो गई तथा उत्तेजना के फलस्वरूप उनका शारीरिक वर्ण काला पड़ गया। उसी समय, देवी के संग स्नान के लिए आई दोनों सहचरी डाकिनी और वारिणी, जो जया तथा विजया नाम से भी जानी जाती हैं क्षुधा (भूख) ग्रस्त हुई और उन दोनों ने पार्वती देवी से भोजन प्रदान करने का आग्रह किया। देवी पार्वती ने उन दोनों सहचरियों को धैर्य रखने के लिये कहा तथा पुन: कैलाश वापस जाकर भोजन देने का आश्वासन दिया। परन्तु, उनकी दोनों सहचरियों को धैर्य नहीं था, वे दोनों तीव्र क्षुधा का अनुभव कर रहीं थीं तथा कहने लगी! “देवी आप तो संपूर्ण ब्रह्माण्ड की माँ हैं और एक माता अपने संतानों को केवल भोजन ही नहीं अपितु अपना सर्वस्व प्रदान कर देती हैं। संतान को पूर्ण अधिकार हैं कि वह अपनी माता से कुछ भी मांग सके, तभी हम बार-बार भोजन हेतु प्रार्थना कर रहे हैं। आप दया के लिए संपूर्ण जगत में विख्यात हैं, परिणामस्वरूप देवी को उन्हें भोजन प्रदान करना चाहिए।” सहचरियों द्वारा इस प्रकार दारुण प्रार्थना करने पर देवी पार्वती ने उनकी क्षुधा निवारण हेतु, अपने खडग़ से अपने मस्तक को काट दिया, तदनंतर, देवी के गले से रक्त की तीन धार निकली। एक धार से उन्होंने स्वयं रक्त पान किया तथा अन्य दो धाराएं अपनी सहचरियों को पान करने हेतु प्रदान किया। इस प्रकार देवी ने स्वयं अपना बलिदान देकर अपनी सहचरियों के क्षुधा का निवारण किया।

देवी छिन्नमस्ता की एक अन्य कथा
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देवी छिन्नमस्ता के उत्पत्ति से संबंधित एक और कथा प्राप्त होती हैं! जो समुद्र मंथन के समय से सम्बंधित हैं। एक बार देवताओं और राक्षसों ने अमृत तथा अन्य प्रकार के नाना रत्नों के प्राप्ति हेतु समुद्र मंथन किया। देवताओं और राक्षसों दोनों नाना रत्न प्राप्त कर शक्तिशाली बनना चाहते थे, सभी रत्नों में अमृत ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रत्न था, जिसे प्राप्त कर अमरत्व प्राप्त करने हेतु, देव तथा दानव समुद्र मंथन कर रहे थे। समुद्र मंथन से कुल 18 प्रकार के रत्न प्राप्त हुए, देवताओं के वैध धन्वन्तरी, अमृत कलश के साथ अंत में प्रकट हुए। तदनंतर देवताओं और राक्षसों दोनों में अमृत कलश प्राप्त करने हेतु, भारी उत्पात हुआ अंतत: देवताओं से दैत्य अमृत कलश लेने में सफल हुए। समस्या के निवारण हेतु भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार धारण किया। अपने नाम के स्वरूप ही देवी मोहिनी ने असुरों को मोहित कर लिया तथा असुर-राज बलि से अमृत कलश प्राप्त कर, देवताओं तथा दानवों को स्वयं अमृत पान करने हेतु तैयार कर लिया। मोहिनी अवतार में स्वयं आद्या शक्ति महामाया ही भगवान विष्णु से प्रकट हुई थी। देवी मोहिनी ने छल से सर्वप्रथम देवताओं को अमृत पान कराया तथा शेष स्वयं पान कर, अपने हाथों से अपने मस्तक को धड़ से अलग कर दिया, जिससे अब और कोई अमृत प्राप्त न कर सकें।

तंत्र क्रियाओं से सम्बंधित हैं देवी छिन्नमस्ता
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सामान्यत: हिंदू धर्म अनुसरण करने वाले देवी छिन्नमस्ता के भयावह तथा उग्र स्वरूप के कारण, स्वतंत्र रूप से या घरों में उनकी पूजा नहीं करते हैं। देवी के कुछ-एक मंदिरों में उनकी पूजा-आराधना की जाती हैं, देवी छिन्नमस्ता तंत्र क्रियाओं से सम्बंधित हैं तथा तांत्रिकों या योगियों द्वारा ही यथाविधि पूजित हैं। देवी की पूजा साधना में विधि का विशेष ध्यान रखा जाता हैं, देवी से सम्बंधित एक प्राचीन मंदिर रजरप्पा में हैं, जो भारत वर्ष के झारखंड राज्य के रामगढ़ जिले में अवस्थित हैं। देवी का स्वरूप अत्यंत ही गोपनीय हैं इसे केवल सिद्ध साधक ही जान सकता हैं। देवी की साधना रात्रि काल में होती हैं तथा देवी का सम्बन्ध तामसी गुण से हैं।
देवी अपना मस्तक काट कर भी जीवित हैं, यह उनकी महान यौगिक (योग-साधना) उपलब्धि हैं। योग-सिद्धि ही मानवों को नाना प्रकार के अलौकिक, चमत्कारी तथा गोपनीय शक्तियों के साथ पूर्ण स्वस्थता प्रदान करती हैं।

राजेन्द्र गुप्ता,
ज्योतिषी और हस्तरेखाविद
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