लालबहादुर शास्त्रीजी के जीवन के प्रेरणादायक संस्मरण पार्ट 2

आत्मसम्मान के धनी-आजादी के दिवाने

dr. j k garg
शास्त्री जी स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान जेल में थे। घर पर उनकी पुत्री गम्भीर रूप बीमार थी, उनके साथियों ने उन्हेँ जेल से बाहर आकर पुत्री को देखने और उसकी देख भाल करने लिये आग्रह किया, शास्त्रीजी की पैरोल भी स्वीकृत हो गई, परन्तु शास्त्री जी ने पैरोल पर छूटकर जेल से बाहर आना अपने आत्मसम्मान के विरुद्ध समझा ! क्योंकि वे यह लिखकर देने को तैयार न थे कि बाहर निकलकर वे स्वतन्त्रता आन्दोलन में कोई काम नहीं करेंगे। अंत में मजिस्ट्रेट को शास्त्रीजी को पन्द्रह दिनों के लिए बिना शर्त छोड़ना पड़ा। वे घर पहुँचे, लेकिन उसी दिन बालिका के प्राण-पखेरू उड़ गए। शास्त्री जी ने कहा, “जिस काम के लिए मैं आया था, वह पूरा हो गया है। अब मुझे जेल वापस जाना चाहिये।” और उसी दिन वो जेल वापस चले गये।

शास्त्रीजी नहीं चाहते थे कि उनका नाम अख़बारों में छपे और लोग उनकी प्रशंसा करें
लाला लाजपत राय से लोक सेवा मंडल के सदस्य की दीक्षा लेने के बाद लाला लाजपत राय ने उनसे कहा “लाल बहादुर ताजमहल में दो तरह के पत्थर लगे हैं यथा सफेद सगंमरमर और नीव में लगाये गये साधारण पत्थर, संगमरमर के पत्थरों को दुनिया देखती है और उनकी प्रसंसा भी करती है वहीं दूसरे तरह के पत्थर नीव में लगे जिनके जीवन में सिर्फ अँधेरा-अँधेरा ही है लेकिन ताजमहल को उन्होंने खड़ा रक्खा हुआ है, इसलिए तुम नीव के पत्थर बनने की कोशिश करना”| शास्त्रीजी ने कहा मुझे लालाजी के वो शब्द आज भी याद है इसीलिए में नीव का पत्थर बना रहना चाहता हूँ | इसीलिए शास्त्रीजी जीवन पर्यन्त नीवं का मजबूत पत्थर काम करते रहे और कभी भी नहीं चाह कि उनका नाम अख़बारों की सुर्खियाँ बने और लोग उनकी प्रशंसा करें |

प्रस्तुतिकरण—-डा.जे.के.गर्ग

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