अजमेर। लक्ष्मीनारायण मंदिर हाथीभाटा, अजमेर में वृंदावन के विख्यात कथावाचक भागवत भ्रमर आचार्य मयंक मनीष की समधुर वाणी द्वारा गत 17 जुलाई से चल रही भागवत कथा में सातवें दिन श्रीमद्भागवत कथा में आचार्य जी ने सुदाम चरित्र का वर्णन इस प्रकार किया – सुदामा श्रीकृष्णके परम मित्र थे। सुदामा के घर दरिद्रता का राज्य था। पत्नी सुषीला के पास एक ही वस्त्र था। कई दिनों तक भूखा भी रहना पडता था। फिर भी वह क्लेष नहीं मानती थी। पति से प्रभुकथा सुनती रहती थी। कई बार बालकों को भी खाने को नहीं मिलता था। सुषीला से अपने संतानों की दुर्दषा नहीं देखी गई और उन्होंने अति व्याकुलतावष अपने पति से उनके मित्र कृष्ण के पास जाकर अपना दुख दूर करने का आग्रह किया। सुषीला ने सुदामा जी के मना करने के बाद भी आग्रह किया कि कृष्ण आपके परम मित्र है। तो उनके दर्षन तो कर आओ। सुषीला के आग्रह पर सुदामा द्वारिका की दिषा में चल दिए। फटी हुई धोती एक हाथ में लकडी और बगल में तंदुल की पोटली लिए अतिषय ठंड में द्वारिका की ओर चल दिये। ठंड के कारण शरीर कांप रहा था। कई दिन से भूखे थे। कुछ चलने पर थक गए और मन में विचार करने लगे कि द्वारिकानाथ के दर्षन भी होंगे या नहीं। भूख एवं दुर्बलता एवं चिन्ता के कारण उन्हें मूर्छा भी आ गयी और द्वारिकाधीष को समाचार मिला कि सुदामा आ रहा है तो ऐसे निष्ठावान, सदाचारी, अयाचक तपस्वी को पैदल चलाना उचित नहीं समझा और उन्होेने गरूढ जी को भेजकर आकष मार्ग से सुदामा जी को द्वारिका में बुला लिया। जिसका ज्ञान मूर्छा के कारण सुदामा जी को नहीं था। भगवान के लिये तुम दस कदम बढोगे तो वह बीस कोस चलकर तुमसे मिलने आ जाएंगे। सुदामा जी भगवान कृष्ण के महल के बाहर पहुंचे और द्वारपालों से अपना नाम सुदामा बताते हुए कृष्ण के दर्षन की इच्छा रखी। द्वारपाल के मुख से सुदामा शब्द सुनते ही भगवान श्रीकृष्ण न जैसे अपनी सुध-बुध खो दी और वह नंगे पांव ही दौड पडे द्वार की ओर। दोनों बाहें फैलाकर उन्होंने सुदामा को हृदय से लगा लिया। भगवान की दीनवत्सलता देखकर सुदामा की आंखे बरस पडी। उनसे अश्रु की धारा लगातार बहे जा रही थी। सुदामा की दीन दषा को देखकर चरण धोने के लिए रखे गये जल को स्पर्ष करने की आवष्यकता ही नहीं पडी। करूणा सागर के नेत्रों की वर्षा से ही मित्र के पैर धुल गये। भाभी ने मेरे लिए कुछ तो भेजा होगा। सुदामा संकोच वष पोटली छिपा रहे थे। भगवान मन में हसंते हैं कि उस दिन चने छिपाए थे और आज तन्दुल छिपा रहा है। जो मुझे देता नहीं है मैं भी उसे कुछ नहीं देता। सो मुझे छीनना ही पडेगा। उन्होंने तन्दुल की पोटली छीन ली। भगवान ने जब उन चावलों की एक मुठ्ठी फांक ली और फिर जैसे ही दूसरी मुट्ठी फांकने को हुए वैसे ही लक्ष्मीजी की अंषूभता रूक्मिणीजी ने उनका हाथ पकड लिया और बोली हे विष्वात्मन! इहलोक और परलोक में जिस सम्पदा से भक्त परम प्रसन्न हो सकता है, उसके लिए इतना ही बहुत है। कुछ दिन रूकने के पश्चात सुदामा जी ने प्रणाम कर वापस लौटने की इच्छा रखी और चले गये। घर पहूंचकर अपने परिवार को परम वैभवयुक्त देखकर सुदामा जी ने कहा कि प्रभु ने मेरे थोडे से चावलों को ही कैस्े स्वाद और प्रेम से खाया था? यह धन मिलने पर भी मैं अब यही कामना करता हूं कि इसके प्रति मेरी आसक्ति न रहे और प्रभू के ध्यान में ही तल्लीन रहते हुए उनके धाम को प्राप्त होउं। कथा में उन्होंने संन्यासी की परिभाषा देते हुए कहा कि- जिसे ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी है वह प्रपंच की निवृत्ति के साधन को माया मात्रा जानकर ज्ञा नके साधन को भी छोड दे वही संन्यासी है। कथा में उन्होंने कलियुग के दोषादि एवं कल्कि अवतार का वर्णन करते हुए कहा कि काल के प्रभाव से सत्य, धर्म, शौच, क्षमा, दया, आयु, बल, स्मृति का नाष होता चला जायेगा। सब ओर झूठ, अधर्म, स्वार्थ, परधन-परनारी अपहरण आदि का बोलबाला रहेगा। प्रजा की आयु बीस-तीस के मध्य रह जाएगी। धर्म के स्थान पर पाखण्ड रह जायेगा तब कलियुग अपनी अन्तिम अवधि पर पहुचंेगा। तब धर्मरक्षार्थ संभल ग्राम में महात्मा विष्णुयष ब्राह्मण के यहां कल्कि भगवान का अवतार होगा। कलियुग में भगवान नाम संकीर्तन की महिमा को कहते हुए कहा कि कलियुग केवल नाम आधारा सुमिर-सुमिर भव पार उतारा। कलियुग में हरिराम संकीर्तन से ही कल्याण संभव है और वो ही सहज है। कथा में व्यास जी ने कहा कि यदि ह्दय में भगवान की मानसिक मूर्ति निष्चित कर पूजन करें तो मन में ही उसका पूजन करता हुआ प्रभु के ध्यान में तल्लीन हो जाए वह सर्वश्रेष्ठ पूजा है। गोविन्द की पूजन के लिये किसी द्रव्य विषेष के अभाव की चिन्ता न करें जो कुछ सुलभ हो उसी से निष्काम भाव से भगवान का अर्चन करें। भगवान को श्रद्धावान का दिया हुआ जल भी अत्यन्त प्रिय है। किन्तु अश्रद्धा से प्रभूत सामग्री भी अपर्ण करे तो उन्हें प्रसन्नता नहीं और भगवत नाम संकीर्तनसे ही एवं भगवान के भक्तों की कथा सुनने एवं सुनाने से भगवान को बडी प्रसन्नता होती है। अंत में आचार्य जी ने भगवत नाम संकीर्तन को ही मोक्ष का मार्ग बताया। उन्होंने कहा कि मीरा बाई नामदेव, नृरसि मेहता आदि भक्तों ने हरि संकीर्तन कर प्रभात फेरी की पंरपरा को प्रकट किया और सषरीर भगवत प्राप्ति हुई। हरि राम संकीर्तन सब पापो को दुख को एवं क्लेष को हरने वाला है। भागवत के विश्राम में भक्तों द्वारा तुलसी पत्र से भगवान गोविन्द की अर्चना की। सभी भक्तों ने तुलसी पत्र पर राधा नाम अंकित कर अर्पण किया। तत्पष्चात भागवत जी की मंगलयात्रा में सभी लोगों ने विरक्त एवं सजल नेत्रों से भाग लिया एवं आचार्य मयंक मनीष जी को विदा किया।
उमेष गर्ग
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