ऐतिहासिक अजमेर

हेरिटेज डे पर विशेष
ajmer-तेजवानी गिरधर- अरावली पर्वतमाला की उपत्यका में बसी इस ऐतिहासिक अजमेर नगरी की धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक दृष्टि से विशिष्ट पहचान है। जगतपिता ब्रह्मा की यज्ञ स्थली तीर्थराज पुष्कर और महान सूफी संत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती को अपने आंचल में समेटे इस नगरी को पूरे विश्व में सांप्रदायिक सौहाद्र्र की मिसाल के रूप में जाना जाता है। यहां हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, पारसी, बौद्ध और आर्य समाज का अनूठा संगम है। यही वजह है कि इसे राजस्थान की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में भी जाना जाता है। पिछले कुछ सालों में नारेली स्थित ज्ञानोदय दिगम्बर जैन तीर्थ स्थल और साईं बाबा मंदिर के निर्माण के साथ ही इसका सांस्कृतिक वैभव और बढ़ा है। इसके अतिरिक्त सरकार ने इसे हेरिटेज और स्मार्ट सिटी बनाने की कवायद भी शुरू कर दी है। इस मौके पर पेश है एक रिपोर्ट, जिसमें अजमेर के प्रमुख ऐतिहासिक स्थलों की जानकारी दी जा रही है:-

दरगाह ख्वाजा साहब
अजमेर में रेलवे से दो किलोमीटर दूर अंतर्राष्टीय ख्याति प्राप्त सांप्रदायिक सौहार्द्र की प्रतीक सूफी संत ख्वाजा मोहनुद्दीन हसन चिश्ती (1143-1233 ईस्वी) की दरगाह है। इस्लाम को मानने वाले मक्का के बाद इसको सबसे पवित्र मानते हैं। वैसे देश-विदेश से आने वाले जायरीन में हिंदुओं की संख्या ज्यादा रहती है। गरीब नवाज के नाम से प्रसिद्ध ख्वाजा साहब की मजार को मांडू के सुल्तान ग्यासुद्दीन खिलजी ने सन् 1464 में पक्का करवाया था। मजार शरीफ के ऊपर आकर्षक गुम्बद है, जिसे शाहजहां ने बनवाया। उस पर खूबसूरत नक्काशी का काम सुलतान महमूद बिन नसीरुद्दीन ने करवाया। गुम्बद पर सुनहरी कलश है। मजार शरीफ के चारों ओर कटहरे बने हुए हैं। एक कटहरा बादशाह जहांगीर ने 1616 में लगवाया था। चांदी का एक कटहरा आमेर नरेश सवाई जयसिंह ने 1730 में भेंट किया था। इसमें 42 हजार 961 तोला चांदी काम में आई। नूकरई कटहरा शहजादी जहांआरा बेगम द्वारा चढ़ाया गया। मजार के दरवाजे पर बादशाह अकबर द्वारा भेंट किए गए किवाड़ों की जोड़ी लगी हुई है। इस्लामिक कलेण्डर के मुताबिक हर साल 1 से 6 रजब तक यहां ख्वाजा साहब का उर्स मनाया जाता है।

निजाम गेट
दरगाह के मुख्य गेट को निजाम गेट कहा जाता है। इसका निर्माण हैदराबाद के निजाम ने 1915 में करवाया था।

नक्कारखाना आस्तानाए उस्मानिया
जायरीने ख्वाजा साहब जिस वक्त हाजिरी के लिए आते हैं, तो सबसे पहले उनकी नजर आस्ताना-ए-आलिया की इस आलीशान इमारत पर पड़ती है, जो बसिलसिला तशरीफ आवरी शहरयार दक्कन आलीजहां नवाब मीर उस्मान खान बहादुर निजाम हफतम हैदाराबाद दक्कन की ओर से तैयार करवाया गया था। तीन साल के अरसे में कसीर अखराजात के बाद 1332 में बन कर तैयार हुआ। नक्कारखाने में मुकर्रर वक्त में नौबत बजाया जाता है।

नक्कारखाना शाहजहांनी
नक्कारखानए उस्मानिया से आगे बढ़ें तो वह शाही दरवाजा नजर आता है, जो कदीम नक्कारखाने के नाम से मशहूर है। चूंकि इस दरवाजे के शुमाल की तरफ मेहराब के ऊपर कलमा लिखा है, इस कारण इसे कलमे का दरवाजा भी कहा जाता है।यहां बड़े नक्कारे रखे हुए हैं, जो फतहे बंगाल के बाद अकबरे आजम ने बंगाल से लाकर यहां रखवाए।

बेगमी दालान
मजार शरीफ के बाहर बादशाह शाहजहां की शहजादी जहांआरा बेगम ने एक दालान बनवाया था। उनकी विसाल के बाद उन्हें यहीं दफनाया गया। बेगमी दालान की दीवारों पर सन् 1888 में रामपुर नवाब मुख्तार अली खान ने संगमरमर की नक्काशी करवाई। सन् 2002 में अंजुमन ने करीब 15 लाख रुपए से सोने की नक्काशी करवाई।

बुलंद दरवाजा खिलजी
इस दरवाजे का निर्माण सुलतान महमूद खिलजी ने हिजरी 859 यानि 1455 ईस्वी में करवाया था। यह 80 फीट ऊंचा है। दरवाजे की बुर्जियों पर ढ़ाई फीट लम्बे सुनहरी कलश लगे हुए हैं।

जन्नती दरवाजा
गुंबद शरीफ की जानिब मगरिब एक दरवाजा चांदी का है, जिसको जन्नती दरवाजा कहा जाता है। असल में यह ख्वाजा साहब के हुजरे में आने-जाने का दरवाजा था। यह साल में चार बार खोला जाता है, ईद मिलादुन नबी, उर्स हजरत ख्वाजा गरीब नवाज पर यानि 29 जमादिस्सानी से छह रजब तक और हजरत गरीब नवाज के पीर-ओ-मुर्शद हज़रत ख़्वाजा उस्मान हारूनी के उर्स की तारीख पर यानि छह शव्वालुल मुकर्रम पर।

अहाता चार यार
हजरत इमामुद्दीन बिन नजमुद्दीन दमिश्मी, हजरत निमाजुल्लाह बिन शफीक अहमद खुरासानी, हजरत शहाब कोनी व हजरत वदुद्दीन बिन शेख सलीम तानफी, ये चारों हजरात गरीब नवाज के हमजलीस व हममकतब थे और उनके हमराह में शरीक हुए। इन चारों का विसाल गरीब नवाज के सामने हुआ और हजरत ने ही इनकी नमाजे जनाजा पढ़ाई और तदफीन फरमाई। दरगाह शरीफ के पास जिस स्थान पर इनके मजारात हैं, उसे अहाता चार यार कहा जाता है।

शाहजहांनी जामा मस्जिद
ख्वाजा साहब के मजार शरीफ के पश्चिमी ओर बनी मस्जिद का निर्माण 1638 ईस्वी में शाहजहां की शहजादी जहांआरा के आदेश से शुरू किया गया था। यह आगरा के किले में स्थित मोती मस्जिद की तर्ज पर बनी हुई है। इसमें 33 छंदों का कलमा खुदा हुआ है, जिसमें खुदा के 99 नाम अंकित हैं। यह काम जहांगीर ने अपनी मेवाड़ विजय के बाद 1617 में करवाया था। इसके निर्माण पर करीब 14 साल लगे और उस जमाने में दो लाख चालीस हजार खर्च हुए।

सहन चिराग
यह दोनों देगों के दरम्यान बुलंद दरवाजे के सामने बरामदे में लगा हुआ है। यह बादशाह अकबर ने भेंट किया था। इसमें रखा चरागदान किसी हिंदू राजा का नजर किया हुआ है।

लंगरखाना
दरगाह के उत्तर में लंगरखाना बना हुआ है। इसके दालान में रोजाना गरीबों के लिए लंगर पकाया जाता है।

प्याले की छतरी
लंगर खाने में एक छतरी मुरब्बा प्याले की छतरी है। इसकी वजह तसमिया यह है कि जिस वक्त अकबर बादशाह हाजिरे आस्ताना हुए तो लंगर तकसीम हो रहा था। फुकरा व मसकीन वहां लंगर पी रहे थे। अकबर भी मिट्टी का प्याला लेकर उनके पास बैठ गए और जैसे ही वे लंगर पीने के लिए प्याला होंठों के करीब लाए, प्याला गिर गया। बेसाख्ता उनके मुंह से निकला- या ख्वाजा, क्या तेरा लंगर मेरी किस्मत में नहीं है। यह कह कर उन्होंने प्याले को वहीं दफन कर उस पर एक छतरी बनाने का हुक्म दे दिया।

अकबरी मस्जिद
नक्कारखानाए शहंशाही से गुजरते ही दायीं ओर शफाखाना का जीना चढऩे पर लाल पत्थर से बनी मस्जिद को अकबरी मस्जिद कहा जाता है। इसे बादशाह अकबर ने सन् 1570-71 में बनवाया।

हौज क्वीन्स मेरी
महफिलखाने के सामने एकानी का हौज (टंका) है, जिसका पानी वजूह के काम में आता है। सन् 1911 में इंग्लैंड की महारानी मेरी ने इसका पुनरुद्धार करवाया था। यह मेरी की हिंदुस्तान में आमद की यादगार है।

मजार निजाम सिक्का
औलिया मस्जिद से जानिबे मशरिक संगमरमर के जालीदार कटहरे में संगमरमर का मरकश मजार है। यह एक दिन के बादशाह निजामुद्दीन की कब्र है। असल में वह भिश्ती था और उसने 1539 में बादशाह हुमायूं के जीवन की रक्षा की थी। उसकी एवज में हुमायूं ने उसे एक दिन का बादशाह बनाया था। शेरशाह सूरी से मुकाबला करते शिकस्त खा कर जब हुमायूं भागा और यमुना नदी में उसका घोड़ा डूब गया तो निजाम सिक्का ने ही बचाया था। निजाम सिक्का के मुतल्लिक मशहूर है कि उसने अपनी मश्क को काटकर सोने की कील लगा कर चमड़े का सिक्का चलाया था, जो आज तक बाज खजाने में मौजूद है।

महफिलखाना
इसका निर्माण सन् 1888-89 में हैदराबाद के नवाब बशीरुद्दौला ने करवाया। इसमें उर्स के दौरान महफिल होती है, जिसकी सदारत दरगाह दीवान करते हैं।

ख्वाजा साहब का चिल्ला
ख्वाजा साहब 1191 ईस्वी में अजमेर आए और आनासागर के पास एक छोटी सी पहाड़ी पर सबसे पहले जिस स्थान पर ठहरे, उसे चिल्ले के नाम से जाना जाता है। यहां ख्वाजा साहब ने वर्षों तक इबादत की। बताते हैं कि उन्होंने अपने जीवन अधिकतर चमत्कार यहीं पर दिखाए। ख्वाजा साहब और अजयपाल जोगी का विवाद भी इसी स्थान हुआ, जिसके अनेक किस्से चर्चित हैं।

बड़ी व छोटी देग
बुलंद दरवाजे के पश्चिमी और पूर्व भाग में बड़ा व छोटा कढ़ाव रखे हुए हैं, जिन्हें बड़ी देग व छोटी देग कहा जाता है। बड़ी देग बादशाह अकबर ने 1567 ईस्वी में भेंट की थी। उस वक्त 18 गांव भी दरगाह को दान में दिए थे, जिनकी आय से लंगर बनता था। इस देग में करीब एक सौ मन चावल पकाया जा सकता है। छोटी देग 1613 ईस्वी में जहांगीर ने भेंट की थी। इसमें अस्सी मन चावल पकाया जा सकता है। इसका निर्माण आगरा में हुआ था। इसमें रोजाना तवर्रुक (प्रसाद) पकाया जाता है, जिसे सभी अमीर-गरीब लाइन लगा कर हासिल करते हैं।

अढ़ाई दिन का झौंपड़ा
दरगाह के सिर्फ एक किलोमीटर फासले पर स्थित अढ़ाई दिन का झौंपड़ा मूलत: एक संस्कृत विद्यालय, सरस्वती कंठाभरण था। अजमेर के पूर्ववर्ती राजा अरणोराज के उत्तराधिकारी विग्रहराज तृतीय ने इसका निर्माण करवाया था। सन् 1192 में मोहम्मद गौरी ने इसे गिराकर कर मात्र ढ़ाई दिन में बनवा दिया। बाद में कुतुबुद्दीन ऐबक ने इसे मस्जिद का रूप दे दिया। मराठा काल में यहां पंजाबशाह बाबा का ढ़ाई दिन का उर्स भी लगता था। कदाचित इन दोनों कारणों से इसे अढ़ाई दिन का झौंपड़ा कहा जाता है। दरगाह शरीफ से कुछ ही दूरी पर स्थित यह इमारत हिंदू-मुस्लिम स्थापत्य कला का नायाब नमूना है।

बड़े पीर की दरगाह
दरगाह के पास पहाड़ी पर स्थित यह दरगाह बगदाद के प्रसिद्ध सूफी संत अब्दुल कादर गिलानी पीरां पीर की परंपरा के संत सूंडे शाह के नाम से है। वे यहां पीरां पीर की दरगाह से एक ईंट लेकर आए थे और हर साल उनका उर्स मनाया करते थे। उन्होंने अपने शागिर्दों से कहा कि जब उनकी मृत्यु हो जाए तो ईंट के साथ ही उन्हें दफना दिया जाए। मराठा काल के दौरान 1770 में उनकी मौत हुई। अनेक साल बाद शेख मादू ने उनकी मजार पर दरगाह का निर्माण करवा दिया।

अकबर का किला
अजमेर शहर के केन्द्र में नया बाजार के पास स्थित इस किले का निर्माण अकबर ने 1571 से 1574 ईस्वी में राजपूतों से होने वाले युद्धों का संचालन करने और ख्वाजा साहब के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए करवाया था। अकबर ने यहां से समस्त दक्षिणी पूर्वी व पश्चिमी राजस्थान को अपने अधिकार में कर लिया था। जहांगीर ने भी 1613 से 1616 के दौरान यहीं से कई सैन्य अभियानों का संचालन किया। इसे राजपूताना संग्रहालय और मैगजीन के नाम से भी जाना जाता है।
इसमें चार बड़े बुर्ज और 54 फीट व 52 फीट चौड़े दरवाजे हैं। यह महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल भारतीय राजनीति में अहम स्थान रखता है, क्योंकि यहीं पर सम्राट जहांगीर ने दस जनवरी 1916 ईस्वी को इंग्लेंड के राजा जॉर्ज पंचम के दूत सर टामस रो को ईस्ट इंडिया कंपनी को हिंदुस्तान में व्यापार करने की अनुमति दी थी। टामस रो यहां कई दिन जहांगीर के साथ रहा। ब्रिटिश काल में 1818 से 1863 तक इसका उपयोग शस्त्रागार के रूप में हुआ, इसी कारण इसका नाम मैगजीन पड़ गया। वर्तमान में यह संग्रहालय है।

किंग एडवर्ड मेमोरियल
ब्रिटिशकाल में सन् 1912-13 के दौरान स्टेशन रोड पर यह सराय इंग्लैंड के शासक एडवर्ड सप्तम की याद में बनाया गया। भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड हार्डिंग ने 15 नवंबर 1912 में इसका शिलान्यास किया।

तारागढ़
समुद्र तल से 1855 फीट ऊंचाई पर पहाड़ी पर करीब अस्सी एकड़ जमीन पर बना यह किला राजा अजयराज चौहान द्वितीय द्वारा 1033 ईस्वी बनवाया गया। बीठली पहाड़ी पर बना होने के कारण इसे गढ़ बीठली के नाम से भी जाना जाता है। बीठली को कोकिला पहाड़ी भी कहा जाता है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि शाहजहां के काल में अजमेर के समीप राजगढ़ के वि_ल गौड़ में इसमें कुछ पविर्तन करवाए और इसका नाम गढ़ वि_ली रख दिया। यह भारत का पहला पहाड़ी दुर्ग माना जाता है। इसे पहले अजयमेरू दुर्ग कहा जाता था।
सन् 1505 में चितौड़ के राणा जयमल के बेटे पृथ्वीराज ने इस पर अधिकार जमा लिया था और उन्होंने इसका नाम अपनी पत्नी तारा के नाम पर कर दिया। यह अनगिनत युद्धों और शासकों के उत्थान-पतन का साक्षी है। सन् 1033 से 1818 तक इस दुर्ग ने सौ से अधिक युद्ध देखे। चौहानों के बाद अफगानों, मुगलों, राजपूतों, मराठों और अंग्रेजों के बीच इस दुर्ग को अपने-अपने अधिकार में रखने के लिए कई छोटे-बड़े युद्ध हुए। औरंगजेब व दारा शिकोह के बीच दौराई में हुए युद्ध के दौरान 1659 में यह काफी क्षतिग्रस्त हुआ।
लॉर्ड बैंटिंग ने 1832 में यहां नसीराबाद छावनी के सैनिकों के लिए सेनीटोरियम बना दिया, जो 1920 तक कायम रहा। करीब दो किलोमीटर क्षेत्र में बने इस दुर्ग में छोटे-मोटे नौ दरवाजे हैं। यहां पहुंचने के दो रास्ते हैं। एक दरगाह से बड़े पीर होते हुए पैदल रास्ता है। दूसरा रामंगज होते हुए है, जहां से वाहन द्वारा जाया जा सकता है।
कुछ इतिहासविद् मानते हैं कि उत्तर भारत के अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) का वध इसी तारागढ़ में सुल्तान मुहम्मद गौरी ने किया था।

क्लॉक टावर (घंटाघर)
इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया के शासन की रजत जयंती के मौके पर रेलवे स्टेशन के सामने विक्टोरिया क्लॉक टावर निर्माण करवाया गया। विक्टोरिया के नाम से ही विक्टोरिया अस्पताल 1895 में बनवाया गया, जिसे आज हम जवाहर लाल नेहरू अस्पताल के नाम से जानते हैं।

आनासागर
इस कृत्रिम झील का निर्माण सम्राट पृथ्वीराज चौहान के पितामह राजा अरणोराज उर्फ अन्नाजी ने 1135-50 में करवाया था। मुगल शासक शासक कलाप्रेमी शाहजहां ने 1637 में झील के किनारे संगमरमर की 4 बारहदरियां एवं एक खामखां का दरवाजा बनवा कर इसकी खूबसूरती में चार चांद लगा दिए। शासक जहांगीर ने इसके किनारे एक आलीशान बाग बनवाया, जिसे कभी दौलत बाग और आज सुभाष उद्यान के नाम से जाना जाता है।

सोनीजी की नसियां
आगरा गेट के पास सोनीजी की नसियां के नाम से विख्यात इस भव्य भवन का निर्माण 1865 में सेठ मूलचंद नेमीचंद सोनी ने करवाया और सन् 1885 में इसमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की प्रतिमा स्थापित करवाई। इसके आंगन में 26 मीटर ऊंचा मानस्तम्भ भी शोभायमान है। पीछे की ओर दो मंजिला भवन में जैन कल्याणक, तेरह द्वीप, सुमेरू पर्वत, भगवान की जन्म स्थली आयोध्या नगरी आदि की सुंदर रचना बेहद लुभावनी है। यह संपूर्ण रचना स्वर्णरचित वर्क से ढ़की है। इसे स्वर्ण नगरी भी कहा जाता है। इसे लाल मंदिर, सोने का मंदिर व कांच का मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।

हैप्पी वैली
तारागढ़ के पश्चिम में स्थित गहरी घाटी में मीठे पानी का चश्मा बहता है, इसे हैप्पी वैली के नाम से जाना जाता है। इस घाटी के प्रवेश मार्ग पर बादशाह जहांगीर ने नूर महल बनवाया था। इसे आकर्षक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है।

चश्मा-ए-नूर
तारागढ़ की तलहटी में स्थित यह एक ऐसी प्राकृतिक जगह है, जहां पैदल ही जाया जा सकता है। बादशाह जहांगीर यहां करीब सत्रह मर्तबा गया था। यहां बाग-बगीचे के अतिरिक्त एक कुंड भी था, जिसमें नूरजहां गुलाब की पंखुडिय़ों से स्नान किया करती थी। कहा जाता है कि नूरजहां ने यहीं गुलाब के इत्र का अविष्कार किया था। अंग्रेज इस स्थान को हैप्पी-वैली कहा करते थे।

बादशाही बिल्डिंग
नया बाजार स्थित यह भवन मूलत: किसी हिंदू का था, जिसको अकबर के जमाने में उनके मातहतों के लिए आवास के रूप में उपयोग किया गया। मराठा काल में यहां पर कचहरी थी। वर्तमान में यह उपेक्षा के कारण जुआरियों व नशाखोरों का अड्डा बना हुआ है।

दादाबाड़ी
बीसलसर झील के किनारे कायम दादाबाड़ी श्वेताम्बर संप्रदाय के जैन संत जिनवल्लभ सूरी के शिष्य श्री जिनदत्त सूरी जी की स्मृति में बनी हुई है। उन्होंने अनेक राजपूतों को जैन धर्म की दीक्षा दी। श्री जिनदत्त दादा के नाम से जाने जाते थे, इसी कारण उनके समाधि स्थल को दादाबाड़ी के नाम से जाना जाता है। यहां भगवान श्री पाश्र्वनाथ का मंदिर भी है। मूर्ति पर विक्रम संवत 1535 (ईस्वी 1478) खुदा हुआ है। यहां आषाढ़ शुक्ला दशमी और एकादशी को दादा जी की स्मृति में मेला आयोजित किया जाता है।

अजयपाल
पुष्कर में सृष्टि यज्ञ के समय प्रजापिता ब्रह्मा ने भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए जो चार शिवलिंग स्थापित किए थे, उनमें एक अजगंध महादेव यहां प्रतिष्ठित किया था। कदाचित इस अज नाम से ही अजयसर गांव बसा। बारहवीं सदी में चौहान राजा अर्णोराज ने यहां एक शिव मंदिर बनवाया था, जो कि आज भी मौजूद है। इसी कारण यह स्थान अजयपाल बाबा के नाम से जाना जाने लगा। माना जाता है कि चौहान राजा अजयपाल ने छठी-सातवीं शताब्दी में इसका निर्माण करवाया। उसने उम्र के आखिरी यहीं पर संन्यास धारण कर बिताये थे। इसके नीचे रूठी रानी का महल है। जहांगीर की बेगम नूरजहां रूठ कर यहां आ गई थी, जिसे मनाने के लिए जहांगीर 27 बार आया।

झरनेश्वर महादेव
तारागढ़ की पहाड़ी के मध्य में स्थित झरनेश्वर महादेव मंदिर मराठा काल में बनाया गया। शिवरात्रि के मौके पर यहां श्रद्धालुओं की विशेष भीड़ रहती है।

दरगाह मीरां सैयद हुसैन खिंग सवार
आगरा स्थित ड्योडी बेगम के जफरउद्दीन खां बुकसेलर की ओर प्रकाशित पुस्तिका हालात तारागढ़ के लेखक डॉ. जफरुल हसन शारिब के अनुसार मीरां सैयद हुसैन शाहबुद्दीन गौरी के मुलाजिमान में से हैं और हिंदुस्तान फतह करते वक्त 588-589 हिजरी में यहां आए थे। शाहबुद्दीन गौरी ने मीरां सैयद हुसैन को अजमेर की शकद वरदारी पर मुकर्रर किया। बाद में कुतुबुद्दीन ऐबक ने उनकी जवांमर्दी व जांबाजी से मुताअसिर हो कर किलेदार बनाया। लाहौर में सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक के लाहौर में घोड़े से गिर कर मरने पर तारागढ़ के किले को फतह करने की साजिश रची गई। मुखालिफीन ने अचानक किले पर हमला कर दिया। इस जंग में काफी लोग मारे गए। हजरत मीरां सैयद हुसैन खिंग सवार भी शहीद हो गए। तारागढ़ पर पहुंच कर हजरत ख्वाजा साहब ने उन्हें ऊंची जगह दफन किया व बाकी शहीदों को उस मुकाम के नीचे दफन किया।

तीर्थराज पुष्कर
अजमेर से 13 किलोमीटर दूर नाग पहाड़ की तलहटी में और समुद्र तल से 530 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पुष्कर राज में चार सौ से भी अधिक छोटे-बड़े देवालय हैं। यहां ब्रह्माजी का एक मात्र मंदिर है। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त यह छोटा सा कस्बा करोड़ों हिंदुओं की आस्था का केन्द्र है। शास्त्रों के अनुसार जगतपिता ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना के लिए यहां यज्ञ किया था। इसलिए इसे तीर्थगुरू भी कहा जाता है। कार्तिक शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक यहां धार्मिक एवं पशु मेला लगता है।

पुष्कर सरोवर
अद्र्ध चंद्राकार आकृति में बनी यह पवित्र व पौराणिक झील पुष्कर का प्रमुख आकर्षण है। झील की उत्पत्ति के बारे में किंवदंती है कि ब्रह्माजी के हाथ से पुष्प गिरने से यहां जल प्रस्फुटित हुआ, उसी से यह झील बनी। मान्यता है कि झील में डुबकी लगाने से पापों का नाश होता है। सरोवर के किनारे चारों ओर 52 घाट बने हुए हैं। इनमें गऊ घाट, वराह व ब्रह्मा घाट ही सर्वाधिक पवित्र माने जाते हैं।

ब्रह्मा मंदिर
यह पुष्कर में मुख्य बाजार के अंतिम छोर पर थोड़ी ऊंचाई पर स्थित है। यह विश्व का एक मात्र प्राचीनतम ब्रह्मा मंदिर है। उपलब्ध तथ्यों के आधार पर कहा जाता है कि ब्रह्माजी की मूर्ति का स्थापना संवत् 713 में आदि जगदगुरू शंकराचार्य ने करवाई थी। इसमें ब्रह्माजी की आदमकद चतुर्मुखी मूर्ति प्रतिष्ठित है। ब्रह्माजी इस मूर्ति में पालथी मारकर बैठे हैं, लेकिन यह मूर्ति मूल रूप में प्रतिष्ठित नहीं है। सम्राट औरंगजेब के शासन में 1658-1708 के दरम्यान मंदिर को गिरा दिया गया था और मूर्ति को भी तोड़ दिया गया था। इसी स्थान पर ईसा पश्चात 1719 में जयपुर की एक ब्राह्मण महिला ने मूर्ति की पुन: प्राण-प्रतिष्ठा करवाई। वर्तमान स्वरूप दौलतराम सिंधिया के एक मंत्री गोकुल चंद पारीक ने प्रदान किया।

श्रीरंगनाथ वेणी गोपाल मंदिर (पुराना रंगजी मंदिर)
इसे शेखावाटी मूल के हैदाराबाद निवासी सेठ पूरणमल ने 1844 ईस्वी में बनवाया था। मंदिर का गोपुरम, विग्रह, ध्वज आदि द्रविड़ शैली में निर्मित हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों व भवनों पर राजपूत शैली एवं शेखावाटी शैली में चित्रकला अंकित है।

श्री रमा बैकुण्ठ मंदिर (नया रंगजी का मंदिर)
वैष्णव संप्रदाय की रामानुजाचार्य शाखा के इस मंदिर का निर्माण डीडवाना के सेठ मंगनीराम रामकुमार बांगड़ ने 1925 ईस्वी में करवाया था। इसे नया रंगजी का मंदिर कहा जाता है। दक्षिण भारतीय वास्तु शैली में बने इस मंदिर में गोपुरम, विग्रह विमान गरुड़ आदि दर्शनीय हैं। श्रावण मास में यहां झूला महोत्सव मनाया जाता है।

बूढ़ा पुष्कर
पुराणों में उल्लेखित तीन पुष्करों ज्येष्ठ, मध्यम व कनिष्ठ में कनिष्ठ पुष्कर ही बूढ़ा पुष्कर है। इसका जीर्णोद्धार सन् दो हजार आठ में राज्य की वसुंधरा राजे सरकार के कार्यकाल में राजस्थान पुरा धरोहर संरक्षण न्यास के अध्यक्ष श्री औंकारसिंह लखावत ने करवाया।

सावित्री मंदिर
पुष्कर में रत्नागिरी पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर में बारे तथ्य यह बताया जाता है कि ब्रह्माजी द्वारा गायत्री को पत्नी बना कर यज्ञ करने से रुष्ठ सावित्री ने वहां मौजूद देवी-देवताओं को श्राप देने के बाद इस पहाड़ी पर आ कर बैठ गई, ताकि उन्हें यज्ञ के गाजे-बाजे की आवाज नहीं सुनाई दे। बताते हैं कि वे यहीं समा गईं। मौजूदा मंदिर का निर्माण मारवाड़ के राजा अजीत सिंह के पुरोहित ने 1687-1728 ईस्वी में करवाया था। मंदिर का विस्तार डीडवाना के बांगड़ घराने ने करवाया। सावित्री माता बंगालियों के लिए सुहाग की देवी मानी जाती है।

निम्बार्क तीर्थ, सलेमाबाद
रूपनगढ़ के पास किशनगढ़ से लगभग 19 किलोमीटर दूर सलेमाबाद गांव में निम्बार्काचार्य संप्रदाय की पीठ ऐतिहासिक और आध्यात्मिक दृष्टि बहुत महत्वपूर्ण है। यहां भगवान सर्वेश्वर की मूर्ति पूजनीय है। वस्तुत: वैष्णव चतुर्सम्प्रदाय में श्री निम्बार्क सम्प्रदाय का अपना विशिष्ट स्थान है। माना जाता है कि न केवल वैष्णव सम्प्रदाय अपितु शैव सम्प्रदाय प्रवर्तक जगद्गुरु आदि श्री शंकराचार्य से भी यह पूर्ववर्ती है।

कल्पवृक्ष, मांगलियावास
अजमेर शहर से करीब पच्चीस किलोमीटर दूर ब्यावर मार्ग पर मांगलियावास गांव में स्थित कल्पवृक्ष की बहुत मान्यता है। बताया जाता है कि यह ऐतिहासिक है। उसके पास हरियाली अमवस्या के दिन विशाल मेला भरता है। यहां कल्पवृक्ष नर, नारी व राजकुमार के रूप में मौजूद है।

ख्वाजा फकरुद्दीन की दरगाह (सरवाड़)
ख्वाजा गरीब नवाज के बड़े पुत्र ख्वाजा फकरुद्दीन चिश्ती की दरगाह जिले के सरवाड़ कस्बे में स्थित है। वहां हर साल उर्स मनाया जाता है, जिसमें अन्य जायरीन के अतिरिक्त विशेष रूप से अजमेर के खादिम जरूर शिरकत करते हैं। अनेक लोग तो अजमेर से पैदल ही जाते हैं। मान्यता है कि उनके आस्ताने पर दुआ जल्द कबूल होती है।

वराह मंदिर, बघेरा
अजमेर से लगभग 80 किलोमीटर दूर बघेरा गांव में वराह तालाब पर स्थित वराह मंदिर पुरातात्वि और स्थापत्य की दृष्टि से काफी महत्पपूर्ण है। कहते हैं कि मंदिर में स्थित मूर्ति भीतर से पोली है और कोई वस्तु टकराने पर मूर्ति गूंजती है। मुस्लिम आक्रमणकारियों के हमले के दौरान इसे तालाब में छिपा दिया गया। आक्रमणकारियों ने मंदिर तोड़ दिया। बाद में मूर्ति को वापस बाहर निकाल कर नए मंदिर में उसकी प्रतिष्ठा की गई।

काफी पुराने हैं ईसाइयों के चर्च
अजमेर में ईसाई धर्मावलम्बियों की उपस्थिति का इतिहास काफी पुराना है। सन् 1860 के आसपास ईसाई समुदाय की आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति अंग्रेज सेना के पुरोहित किया करते थे। बाद में आगरा के मिशनरी पुरोहित आया करते थे। सन् 1982 में फ्रांस के कुछ मिशनरी अजमेर आए। केसरगंज स्थित चर्च मदर मेरी को समर्पित है। इसका निर्माण कार्य 1896 में शुरू हुआ और यह 28 दिसम्बर 1898 को इसका उद्घाटन हुआ। प्राचीन धरोहर होने के नाते भारतीय पुरातत्त्व विभाग इसकी देखरेख करता है। यह चर्च न केवल सबसे पुराना है, अपितु काफी बड़ा भी है। इसकी काफी मान्यता है, क्योंकि यहां बिशप स्वामी का सिंहासन है। लेटिन भाषा में बिशप स्वामी के सिंहासन को केथेड्रा कहते हैं। इसी कारण इसे केथेड्रल यानि महागिरिजाघर कहा जाता है।
मेयो लिंक रोड भट्टा स्थित चर्च की स्थापना 1913 में हुई। यह चर्च भी मदर मेरी के प्रति समर्पित है। मदार स्थित चर्च की स्थापना सन् 2006 में हुई। यह मदर मेरी की पवित्र माला होली रोसरी के प्रति समर्पित है। नसीराबाद रोड पर परबतपुरा गांव में स्थित चर्च की स्थापना सन् 1905 में हुई। यह संत जोसफ के प्रति समर्पित है। भवानीखेड़ा गांव में स्थित चर्च की स्थापना 1905 में हुई। यह संत मार्टिन को समर्पित है। फॉयसागर रोड पर हाथीखेड़ा गांव में 1979 में आए फादर रोबर्ट लुईस की तपस्या से फलस्वरूप कई लोग शारीरिक चंगाई व ईश्वर की शक्ति का अहसास करने लगे।

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