इन दिनों झील पर आमद है पंछियों की…हमारे शहर में परिन्दों का बसेरा हो तो मेहमाननवाज़ी में हम पीछे कहाँ रह सकते हैं… सच! आस देते हैं ये पंछी..हौंसले की, तमाम वैपरित्य के बावजूद आसमां मापने की..अपनी परवाज़ को बेमाप करने की..और ये बताने कि हम कहाँ इस दुनिया की रवायतों में कैद रहने वाले हैं…कितनी बार घर लौटते हुए इन्हें समूह में अठखेलियाँ करते हुए पाया है ..कहीं कोई हंसा ठूठ पर वीतरागी की तरह शांत बैठा हुआ जीवन के जाने कितने पाठ पढ़ा गया चुपचाप, तो कोई चुप्पियों को हँसना सिखा गया है अपनी ही मौज़ मे…कई-कई दृश्य हैं जिन्हें कैमरे की आँख नहीं देख पाती फिर भी कुछ हैं जिन्हें ले आयी हूँ…
विमलेश शर्मा की फेसबुक वाल से साभार