नरेगा पर नरेन्द्र की नकेल

modi 15 augनरेन्द्र मोदी सरकार ने नरेगा नीति (महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) में कुछ संशोधन की योजना बनाई है। दूसरी ओर भारत तथा पश्चिम के अठाइस अर्थशास्त्रियों ने भारत सरकार के इस नये सुझाव को श्रम विरोधी बताकर उसके विरूद्ध विचार व्यक्त किया है। भारत सरकार इस योजना मे दो संशोधन करना चाहती है। पहला, इस योजना का कार्यक्षेत्र घटाकर देश के दो सौ पिछड़े जिलों तक सीमित कर दिया जाए और दूसरा, योजना में श्रम और निर्मित वस्तु के वर्तमान अनुपात साठ चालीस को बदलकर इक्यावन उन्चास कर दिया जाए।

सन दो हजार पांच में यह योजना शुरू हुई। और यह कहने में कोई संकोच नहीं हो सकता कि नरेगा श्रमजीवियों के हित में सरकार द्वारा किया गया पहला सफल प्रयास रहा। इस योजना को शुरू करने का सर्वाधिक दबाव वामपंथियों का रहा। वे नही समझते थे कि भारत सरकार इसे मान लेगी और जब सरकार ने इसे मानकर लागू किया तो वामपंथियों को भारी अफसोस हुआ। वामपंथियों ने समय समय पर इस योजना के महत्व को कम करने के अनेक प्रयास किये जिनमे आंशिक रूप से वे सफल भी रहे। दूसरी ओर विकसित प्रदेशों के बड़े किसानों ने भी इस योजना के विरूद्ध प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष लाबिंग की। तीसरी ओर वामपंथियों तथा विकसित प्रदेशों के बड़े किसानों के कष्ट से प्रभावित अनेक सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीशों तथा अधिवक्ताओं ने भी इस योजना का स्वरूप बदलने का भरसक प्रयास शुरू कर दिया। अर्थशास्त्रियों की भी जमात उन विकसित किसानो के पक्ष में आकर खड़ी हो गई है। इन्हीं लोगों ने एक पत्र लिखा है। जिन अठाइस लोगो ने मिलकर यह पत्र लिखा है उनमे से एक भी ऐसा नही जिसे समाजशास्त्र का कोई ज्ञान हो अथवा ग्रामीण अर्थव्यवस्था का कुछ पता हो। कुछ पश्चिमी अर्थशास्त्र की किताबें पढकर वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था से बड़ी बड़ी डिग्रियां ले लेना ही उनकी विशेष योग्यता है। उन्हे यह भी पता है कि इसके पूर्व ही ऐसे ही अनेक न्यायाधिपति की डिग्रीधारी लोगों ने पत्र लिखकर मनमोहन सरकार से संशोधन कराने मे सफलता पा ली थी।

जबसे यह योजना लागू की गई तभी से इसके विरूद्ध लगातार षण्यंत्र हुए। कुछ प्रत्यक्ष षण्यंत्र थे तो कुछ परोक्ष। स्वतंत्रता के बाद यह पहली योजना थी जो पूरी तरह निष्कपट तथा प्रभावोत्पादक थी। इसकी एक विशेषता रही कि यह परिवार व्यवस्था को मान्यता देती थी क्योकि योजनानुसार परिवार के एक सदस्य को एक सौ दिन के काम की गारंटी दी गई थी। दूसरी विशेषता थी कि इसमे ग्रामीण रोजगार गारंटी देकर शहरी आबादी को बाहर रखा गया था। तीसरी विशेषता यह थी कि इसका श्रममूल्य अविकसित क्षेत्रों के वास्तविक श्रम मूल्य के समकक्ष ही रखा गया था जिससे वर्ष के आधे से अधिक दिनों में ऐसे श्रमिक योजना पर बोझ न बने तथा वे वर्ष में करीब सौ दिन ही योजना पर आश्रित हो। चौथी विशेषता यह थी कि इस योजना में आदिवासी गैर आदिवासी या महिला पुरूष का भेद न करके समान रूप से लागू की गई। इस योजना से अविकसित प्रदेशों के श्रमिकों का पलायन रूका। विकसित क्षेत्रों के किसानों का उत्पादन प्रभावित होना शुरू हुआ जिस कारण उन्हें या तो स्वयं श्रम करना पड़ा अथवा मजदूरी बढानी पड़ी। दोनों ही कारणों से उनका लाभ प्रभावित हुआ। इस योजना के प्रभाव से अविकसित क्षेत्रों में उत्पादन बढा तथा विकसित अविकसित के बीच का अंतर घटा। योजना का प्रत्यक्ष विरोध करने वालों की सरकार ने एक न सुनी किन्तु भारत की न्यायपालिका भी ऐसे अप्रत्यक्ष प्रचार से प्रभावित दिखी।

सबसे बड़ी बात यह थी कि प्रारंभ में नरेगा के लिये दैनिक श्रम मूल्य साठ रूपया था। उस समय अर्थात 2006 में अविकसित प्रदेशों का श्रम मूल्य पचास से लेकर साठ के बीच ही था। इसका अर्थ यह हुआ कि योजना पर बेरोजगारों का अनावश्यक बोझ नहीं था। स्वाभाविक था कि मुद्रा स्फीति के आधार पर श्रम मूल्य बढकर एक सौ पचास के आसपास होता। सच बात यह भी है कि जिन क्षेत्रो में 2005 में श्रम मूल्य पचास से साठ था वहां अब श्रम मूल्य एक सौ बीस से एक सौ चालीस ही है। किन्तु नरेगा की योजना को असफल करने वालो ने नरेगा का श्रम मूल्य ज्यादा बढवा दिया तथा उसे उन क्षेत्रों में भी लागू करवा दिया जहां पहले से ही श्रम मूल्य ज्यादा था। वर्तमान में जिन क्षेत्रो में स्वाभाविक श्रम मूल्य दो सौ से ऊपर है वहां केन्द्र सरकार को अविकसित क्षेत्रो से कटौती करके नरेगा क्यो चालू करना चाहिये? शहरों में भी नरेगा लागू करने का भरपूर दबाव पड़ा जबकि यह योजना सिद्धान्तरूप से गांव की सीमा तक सीमित थी। दबाव डालने वाले एक ओर तो श्रम मूल्य बढवाने तक दबाव डालते थे तो दूसरी ओर षिक्षा का बजट भी बढाने का दबाव बनाते रहते थे। तीसरी ओर यह बात भी रही कि यही दबाव डालने वाले किसी नये कर के विरूद्ध भी दबाव बनाते रहते थे। परिणाम  यह हुआ  कि केन्द्र सरकार पर बोझ  बढा। 2005 में यह योजना 11 हजार करोड़ की थी। मुद्रा स्फीति के आधार पर योजना को 28 हजार करोड का होना चाहिये था किन्तु हो गई 40 हजार करोड से ऊपर।

नरेगा की योजना को भटकाने में वामपंथियो पूंजीपतियों बुद्धिजीवियों का तो हाथ रहा ही किन्तु न्यायपालिका भी भटक गई। न्यायपालिका ने भटकाने वाले प्रयत्नों को जनहित मानने की भूल करके इसका आकार बढाने का ही काम किया। योजना को पटरी से उतारने वाले  लगातार यह प्रचार करते थे कि इस योजना के दुष्प्रभाव से हरियाणा पंजाब का उत्पादन प्रभावित हो रहा है। भारत सरकार की एक कमेटी ने भी यही नतीजा निकाला था। दूसरी ओर यही लोग लगातार यह प्रचार कर रहे थे कि नरेगा में भारी भ्रष्टाचार और अव्यवस्था है। इसका यह प्रचार तो ज्यादा प्रभावी नही रहा किन्तु श्रम मूल्य की अनाप शनाप बढ़ोतरी तथा योजना को विकसित क्षेत्रों तक बढाने की तरकीब सफल हो गई। केन्द्र सरकार मानती गई, उस पर आर्थिक बोझ बढता गया, घाटे का बजट बढता गया तथा परिणाम सबके सामने है।

लेकिन नरेगा पर अब नरेन्द्र मोदी सरकार ने बिल्कुल ठीक कदम उठाया है। योजना अविकसित दो सौ जिलो तक ही सीमित हो इसमे गलत क्या है। क्यो विकसित क्षेत्रों में भी लागू किया जाए? घाटे का बजट है। विशेष स्थिति में ही पूर्व सरकार ने दो सौ जिलो में लागू किया था। तथाकथित अर्थशास्त्रियो के दबाव में ही कांग्रेस सरकार इसका स्वरूप सुरक्षा की तरह बढाते गई। अब मोदी सरकार दबाव मुक्त है। खतरा देखकर दो तथाकथित विद्वान अरूणा राय तथा निखिल डे ने कुछ तथाकथित अर्थशास्त्रियों के हस्ताक्षर कराकर अठाइस की संख्या पूरी की। भारत का हर नागरिक जानता है कि अरूणा राय समय समय पर सोनिया गांधी की संकट मोचक का काम करती रही है। निखिल डे, तो उनके साथी ही है। बड़ी कठिनाई से कुछ नाम खोजे गये जिनमें प्रिस्टन विश्वविद्यालय के दिलीप एवेन्यू, केलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रणव वर्धन, आस्टिन विश्वविद्यालय के वी भास्कर, वास्टन विश्वविद्यालय के दिलीप मुखर्जी जैसे नाम प्रमुख है। ज्यां द्रेज, रितिका खेरा, अभिजीत सेन, जयन्ती घोस, अश्विनी देशपांडे भी उन हस्ताक्षरकर्ताओ में शामिल है। आप समझ सकते हैं कि इनमे से कौन कौन नाम भारत के अविकसित क्षेत्रों से परिचित है। किनको किनको अर्थशास्त्र का कितना ज्ञान है।

यह पहला अवसर नही है जब नरेगा योजना को भटकाने की कोशिश की गई है। इसके पूर्व दो हजार ग्यारह में देश के सर्वोच्च न्यायालय के अनेक न्यायाधीशों तथा अधिवक्ताओं ने यही काम किया था। इसके पूर्व अनेक सांसदो की टीम ने नरेगा को बंद करने की ही बात कही थी। दुख होता है यह सुनकर कि कुछ सांसद नरेगा के विरूद्ध है तो अनेक न्यायाधिपति नरेगा के अन्तर्गत दी जाने वाली मजदूरी को अपर्याप्त बता रहे है। सांसद नरेगा में मिलने वाली मजदूरी ज्यादा होने के कारण कृषि उत्पादन पर पड़ने वाले दुष्प्ररभाव के कारण चिंतित है तो न्यायाधिपति न्यूनतम मजदूरी कानून से कम दी जा रही मजदूरी को बेगार या बलात्कार सिद्ध कर रहे हैं। इतने अच्छे अच्छे विद्वान यदि स्वैच्छिक सहमति से तय श्रम मूल्य तथा बलातश्रम का अंतर न समझें यह दुख की बात है। ये विद्वान नरेगा को मौलिक अधिकार कहते हैं जबकि नरेगा संवैधानिक अधिकार है। बेगार या बलातश्रम मूल अधिकारों का उल्लंघन है जबकि कानून से घोषित मूल्य से कम मजदूरी देना सिर्फ गैर कानूनी।

मोदी सरकार दो सौ अविकसित जिलो मे नरेगा को सीमित कर रही है यह अच्छी बात है। सरकार को साथ साथ यह भी ध्यान रखना चाहिये कि श्रम मूल्य न तो बाजार मूल्य से बहुत अधिक हो न बहुत कम। यदि श्रम मूल्य बाजार मूल्य से अधिक होगा तो अन्यत्र रोजगार कर रहे लोग भीड़ बढाकर बजट को असंतुलित करेंगे तथा बहुत कम होगा तो नरेगा का उद्येश्य ही अधूरा रह जायगा। अविकसित क्षेत्रों की लगभग तैतीस प्रतिशत आबादी को श्रमजीवी माना जा सकता है। बीस प्रतिशत आबादी को डेढ सौ दिनों तक का काम नरेगा योजना में होने को संतुलित मानना चाहिये। यदि इससे अधिक ऊपर या नीचे संख्या हो तो असंतुलित मानकर श्रम मूल्य में संशोधन करना चाहिये। अविकसित जिलो में यदि सौ दिन की सीमा को भी हटा दें तो अच्छी बात होगी। सरकार को यदि नरेगा के कारण बजट लड़खड़ाता हो तो शिक्षा का बजट काटकर नरेगा को पूरा करना चाहिये। भारत सरकार साठ चालीस के अनुपात को इक्यावन उन्चास कर रही है, अथवा नरेगा में कुछ और संषेाधन कर रही हैं तो उसके कारण स्पष्ट होने पर ही उसकी समीक्षा संभव हैं। अब तक तो मोदी सरकार के हर कदम ठीक दिशा मे जा रहे हैं। इसलिये विश्वास के आधार पर उनसे पूर्ण सहमति के साथ सुझाव है कि नरेगा में नकली श्रमजीवी हितैषियों की नीयत खराब है और वे किसी न किसी तरह इस योजना को बजट बोझिल बनाकर बंद कराना चाहते हैं। ऐसे लोगो से सरकार को सावधान रहना चाहिये।
http://visfot.com/

error: Content is protected !!