कर्नल बैंसला को वार्ता में क्यों नहीं बुलाया गया या कर्नल क्यों नहीं गए, इसमें क्या राज है या राजनीति है, इसे समझने की आवश्यकता है। कर्नल साहब मेडम वसुन्धरा की ही सृजन थे। गूजर राजनीति में एक छत्रप के रूप में वह उन्हें स्थापित करना चाहती थी। एक तो गूजरों की मेडम समधिन थी, दूसरा करोडी मीणा को भी उस क्षेत्र में सुलटना था, इसलिये एक सोची समझी रणनीति के तहत कर्नल की प्राण प्रतिष्ठा समारोह पूर्वक गई। कर्नल को भाजपा के टिकट पर सांसद का चुनाव टोंक से लड़वाया गया। गूजर मीणा कार्ड खेला गया। भविष्य की राजनीति की रूप रेखा बनी कि कर्नल को कहां और कैसे इस्तेमाल किया जायेगा। उनकी अंग्रेजी भाषण कला का कैसे लाभ लिया जायेगा। पिछला से पिछला आन्दोलन इसी रणनीति के तहत करवाया गया औरअकुछ आईएएस अधिकारी कर्नल की सेवा लगाये गये, जो सोडा पानी लाते और मिजाजपूर्सी करते रहते और उनकी चिलम भरते रहते। कर्नल साहब को आन्दोलन का चस्का लग गया और तीन चार जिलों में कर्नल के कहने से क्लेक्टर और एसपी लगने लग गए। उसकी महत्वकांक्षाएं बढऩे लगी और उनका प्रभा मन्डल भी बढ़ गया। अब वे बेकाबू हो गए औऱ सींग मारने लगे। इतने पर भी अन्त नहीं हुआ और वे खूंटा तुड़ा कर भाग गए। आन्दोलन भी उनके और सरकार के काबू से बाहर हो गया। बड़ी जान माल की हानि हुई। जिस राजनीतिक लाभ के लिए कर्नल को पैदा किया था, उल्टा नुकसान हो गया। सरकार भी चली गई। अब आई कांग्रेस, कर्नल ने वहां भी सुर मिला लिया। फिर शुरू हुई नूरा कुश्ती। अबके बराबर की जोड़ थी। जादूगर ने जादू दिखाया।
लाठी-गोली नहीं चली। आन्दोलन राष्ट्रीय न हो कर चार जिलों तक ही सीमित हो गया और कर्नल कांग्रेस की गोद में बैठ गए। फिर राज बदला कर्नल को अपना लाइसेन्स रिन्यू करवाना था और तीन चार साल दुकान चलानी थी, सो पुन: आन्दोलन की राह पकड़ी। वो ही तीन-चार जिले पर प्रभा मंडल था। पर अबकी बार मेडम कर्नल को समझ चुकी थीं। कोई भाव नहीं दिया और न लाठी भाटा जंग, न गोली चली। आन्दोलन फिर तीन चार जिलों तक ही सीमित हो गया। उनका राज्य स्तरीय स्वरूप भी नहीं बन पाया। मेडम कर्नल के मुंह में उंगली डाल कर उनके दांत गिन चुकी थी, इसलिये उसे कोई तरजीह न देने का फरमान जारी हुआ और बिना कर्नल वार्ता शुरू हुई। वार्ताकारों को भी आदेश दिये गये की कर्नल को कोई भाव न दें। उसे आइना दिखाना है। इसलिए हुई बिना कर्नल वार्तालाप।
इति कथा समाप्त।
-एडवोकेट राजेश टंडन