आरक्षण का अर्थ होता है सुरक्षित करना l किन्तु जात-पात और दलितोत्थान के नाम पर सामाजिक वैमनस्य का उत्पात और आपसी घृणा का आतंकवाद फैलाने वाले उग्रवादी राजनेता और पार्टी अपने घर और अपनी तिजोरी “सुरक्षित” करने के क्रम में इस बोतल के जिन्न को अपनी सुविधानुसार निकालते और बंद करते रहते हैं l आम जनता को भेदभाव और नफ़रत की आग में झोंक कर ख़ुद अपनी रोटी सेंकते, पकाते, खाते और मुस्कुराते हैं l
सबसे बड़ी बात ये है कि जब सृष्टिकर्ता ने अपने बनाये संसार में कोई भेदभाव नहीं रखा तो धर्म, लिंग और जाति का भेद उत्पन्न करनेवाले हम और आप कौन होते हैं ? अमेरिका जैसे विकसित और संसार के सबसे समृद्ध देशों में इस प्रकार की कोई प्रक्रिया लागू नहीं होती है, आख़िर भारत जैसे संघर्षशील देश में हीं आरक्षण क्यूँ ? जाहिर है राजनैतिक और सामाजिक स्वार्थ के षड्यन्त्र के तहत मनुष्य ने मनुष्य को जाति, धर्म, वर्ग, और वर्ण में बाँट दिया है l स्वार्थ का कुत्सित खेल रचनेवाले राजनेता और राजनीतिक दल जब-तब आरक्षण के नाग को पिटारे से निकालकर अपने मतलब की बीन की धुन पर अपनी कुर्सी को आरक्षित करने के भोंडे प्रयास में लीन रहते आए हैं l अगड़े-पिछड़े और दलित राजनीति की आड़ में निजी स्वार्थ के आरक्षण के ऐसे-ऐसे वीभत्स और नंगे नृत्य होते चले आ रहे हैं जो भयंकर भुतहे खेल से भी बढ़कर प्रतीत होते हैं l
वह आरक्षण जो आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन के लिए नहीं बल्कि अपना वोट बैंक सुरक्षित करने के लिए दिया जाए तो ऐसे ओछे कृत्य को अंजाम देने में किसका हित सध रहा है यह देखनेवाली बात है l
सर्वप्रथम तो आरक्षण शब्द को हीं संविधान से बाहर कर देना चाहिए l इस स्थान के लिए अगर कोई शब्द उपयुक्त है तो वह है – “भारतीयता और मानवीयता” पर तो भी अगर यह हो हीं रहा है तो आरक्षण जातिगत ना होकर आर्थिक, सामाजिक संसाधनों से वंचितों के लिए होने चाहिए l
सत्ता के भूखे अमानुषों द्वारा स्वहित के बवंडर पैदा कर ‘’मण्डल” और “कमण्डल” से निकाल-निकाल कर जो विषैले विषधर समाज में फेंके गए उनके प्रखर विष की अग्निदाह की धधकती ज्वाला में उस वक़्त ना जाने कितने आत्मदाह और जाति के नाम पर कितने नीचतम काण्डों को अंजाम दिया गया l विवशता एवं लाचारी की लज्ज़ा और अपमान के कलंक से झुका सर फ़िर कभी उठ ना पाया पर इन भूखे सत्ताधारी आतंकवादियों को इस सबसे क्या मतलब ? इन्हें तो मनुष्यता,मानवीयता का आवरण उतारकर नंगा नाच करने की घिनौनी आदत है l
पिछड़ों एवं दलितों का उत्थान व उद्धार अवश्य होना चाहिए किन्तु उन्हीं का जो वास्तविक रूप से सदियों से पिछड़े और वंचित हैं l चाहे वे किसी भी जाति-धर्म के हों l ताकि वास्तविक जरूरतमंद का, समाज का और मानवता का कल्याण हो सके ना कि निज स्वार्थ सिद्धि कामना वाली गद्देदार कुर्सियों के लोलुप शातिर शिकारियों का l
– कंचन पाठक.
कवियित्री, लेखिका