आज़म खां की कोशिशें मुलायम सिंह और अखिलेश को करीब लायीं

आज़म खां साहब की अज़ीम कोशिशें मुलायम सिंह यादव जी और अखिलेश यादव जी को करीब लायीं |
उसूलों के आईनें में और इंसानी रिश्तों के नज़रिये से आज़म खां साहब की कोशिशें काबिल-ए-सताइश हैं ||

चौधरी मुनव्वर सलीम
चौधरी मुनव्वर सलीम
एक लम्बे वक़्त से अस्पताल में ज़ेरे इलाज सपा सांसद चौधरी मुनव्वर सलीम ने अपना पहला लिखित बयान जारी करते हुए कहा कि हिन्दोस्तान का सबसे ताक़तवर राजनैतिक परिवार जिसे बाहरी दलाल मुसलसल कमज़ोर करने की साज़िश करते रहे हैं,उस वक़्त कामयाब होते दिखाई देने लगे थे जब मुलायम सिंह यादव जी के नेतृत्व में करोडो कार्यकर्ताओं के संघर्ष के उपरान्त उप्र के 20 करोड़ से ज़्यादा लोगों के बीच बदलाव का परचम ,क्रांति का प्रतीक और शोषण मुक्त समाज के निर्माण की जुस्तजू में लगा वोह सायकिल निशान जिसने हिन्दोस्तान के बड़े-बड़े राजनीतिक सूरमाओं को उप्र की धरती पर धराशायी कर दिया था,फ्रीज़ होता नज़र आने लगा था |
लेकिन समाजवादी आंदोलन के प्रोधा के रूप में मुलायम सिंह यादव जी बराबर यही कहते रहे कि पार्टी में कोई बटवारा नहीं होगा और अंततोगत्वा सियासी पसमंजर में भला किसी मुक़दमे और फैसले के तहत करोड़ों कार्यकर्ताओं की आत्मा में बसी हुई सायकिल एक बार फिर सरज़मीन-ए-उप्र पर नया राजनीतिक इतिहास लिखने के लिए मुलायम सिंह यादव जी और इंजिनियर अखिलेश यादव जी की क़यादत में घूमती नज़र आने लगी |
नेताओं के अहतराम में अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की हिम्मत वोह आख़री कार्यकर्ता नहीं दिखा पा रहा था जिसने पुलिस की लाठियां,माया सरकार के ज़ुल्म और बाहूबलियों से टकराकर सायकिल के सम्मान को बढ़ाया और बचाया था वोह बस यही चाहता था कि नेता जी का अनुभव,अखिलेश जी का जोश और कार्यकर्ताओं की क़ुरबानी मिलकर एक बार फिर परदेसी राजनैतिक सौदागरों से सरज़मीन-ए-उप्र को सायकिल के माध्यम से ही मुक्त कराएं |
इस तमाम जद्दोजहद और अपनी-अपनी तरह एक दुसरे को कमज़ोर और ताक़तवर बनाने की कोशिशों के बीच एक ऐसी शख्सियत भी थी जिसकी रचनात्मक कोशिश को न सिर्फ हिन्दोस्तान का कमज़ोर तबका बल्कि हिन्दोस्तान को साम्प्रदायिक घ्रणा से बचाने की सोच रखने वाले तमाम संगठन और लोग यह कहते नज़र आ रहे थे कि वाह मो.आज़म खां साहब उप्र की ज़मीन पर नफ़रत की खेती करने वालों को पराजित करने के लिए पिता-पुत्र के रिश्ते के बीच विश्वास और मिठास उतनी ही ज़रूरी है जितना कि सायकिल चुनाव चिन्ह का बचना और अख़िरकार हिन्दोस्तान का सबसे ताक़तवर राजनीतिक परिवार एक मज़बूत रणनीति के साथ राजनीतिक युद्ध के मैदान में अखिलेश यादव जी के नेतृत्व में और नेता जी की सरपरस्ती में खड़ा हुआ दिखाई दे रहा है ,हो सकता है कि जिन दिनों मो.आज़म खां साहब मोहब्बत और विश्वास की नयी इबारत अपनी कोशिशों से लिखने में मसरूफ़ थे उन दिनों सतही सियासत करने वाले लोग यह न समझ पा रहे हों | मगर हिन्दोस्तानी सियासत को गहराई से जानने वाले चुनिंदा राजनेता यह कहते दिखाई दे रहे थे कि –
“हमने माना सारे दिये तेरी आँधियों ने बुझा दिए |
मगर एक जुगनू हवाओं में अभी रोशनी का इमाम है ||”
आज तंगदिल सियासतदाँ और सच को नज़र अंदाज़ करने वाली गुफ्तगू मो.आज़म खां साहब की इस मफककराना,मुल्क और मिल्ली अहसास में इस तहरीक और कोशिश को जान बूझकर नज़रअंदाज़ कर दें लेकिन आने वाला कल यह मानने पर मजबूर होगा कि किसी युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए बुज़र्गों की दुआएं और उनका अनुभव,नौजवानों की शक्ती और उनका जुनून,महिलाओं का बलिदान और उनकी संकल्प क्षमता तथा सहपाठियों और सहयोगियों का सही मशवरा जितना ज़रूरी होता है उतना ही किसी सियासी जंग को आसानी से जीता जा सकता है|
इस पूरे राजनीतिक घटनाक्रम में उन किरदारों से होशियार रहने की सीख मिलती है जो विचार विहीन होते हुए भी केवल चुगली के आधार पर दलों,आन्दोलनों और घरेलू रिश्तों को अपने चरित्र से फ़ना करते रहे हैं |

अपने बयान को संक्षिप्त करते हुए मैं एक बार फिर इस तहरीक में अपना ज़ाती अपमान अथवा स्वाभिमान एक तरफ रखते हुए विचारों के सम्मान और उनकी हिफाज़त के लिए मुसलसल कोशिशें करते रहने वाले मो.आज़म खां साहब को मैं मफक्कर-ए-आज़म के खिताब से सरफ़राज़ करता हूँ | मुझे मालूम है कि मेरा आज का लिखा बहुत थोड़ा है लेकिन आने वाली नस्ल जब मो.आज़म खां साहब के किरदार पर तब्सिरा करेगी और इस सेक्युलर तहरीक पर कुछ लिखेगी तब वह अपनी क़लम से इससे कहीं ज़्यादा लिखेगी और अपनी क़लम से अवाम ओ ख्वास को यह दर्स देती रहेगी कि-
“मिटा दे अपनी हस्ती को गर कोई मरतबा चाहे |
कि दाना ख़ाक में मिलकर गुल-ए-गुलज़ार होता है || ”
तमाम बड़े नेताओं से लेकर करोडो समाजवादी कार्यकर्ताओं और विचारकों की हिफ़ाज़त के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने वाले नेताओं को सलाम करते हुए आने वाले सुनहरी सियासी मंज़र की मुबारकबाद देते हुए अखिलेश यादव जी की सायकिल को प्राचीर लाल किले की दीवार तक आने का सपना देखते हुए उस अज़ीम शख्सियत की सियासी सूझ बूझ को सलाम जिसने दो पीढ़ियों के संगम के लिए एक ऐसे पुल की भूमिका अदा की है जिस पर सरपट दौड़ती धर्मनिरपेक्षता की सायकिल साम्प्रदायिक ताक़तों को रौंदती हुई न सिर्फ लखनऊ बल्कि दिल्ली पर भी समानता,धर्मनिरपेक्षता और एकता का परचम ज़रूर लहरायेगी |

चौधरी मुनव्वर सलीम

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