यक़ीन

रास बिहारी गौड़
रास बिहारी गौड़
हम यकीन नहीं करते थे
नाना की बातों पर
वे बीस किलोमीटर नदी पार कर
पढने जाते थे
रास्ते पढ़ते हुए किताबों के साथ
नदी का गीलापन भी पढ़ लेते थे

हम यकीन नहीं करते थे
पिता के अभावों पर
उनके पास एक जोड़ी कपडे थे
जिन्हें रात को धोकर सुबह पहन लेते थे
जैसे सूरज उगता है रोज
नए उजाले के साथ

बच्चे यकीन नहीं करते
हमारे सच पर
मोहल्ले के किसी एक घर में
टी वी अर्थात कि दूरदर्शन होता था
‘अर्थात कि’ में सत्यमेव जयते की धुन बजती थी
साप्ताहिक फ़िल्म या चित्रहार का सांझा मनोरंजन
रिश्तों के आँगन में रंग भर जाता था

डाकिया भरी दोपहर
बारी बारी से
इन्तजार करती आँखों के कोरों पर
अनबुझी चमक रख आगे बढ़ जाता था
टेलीफोन पर आवाजें बनावटी लगती थी
या कहें आवाजें हवाओं में तैरने से डरती थी

यकीन के खण्डरों में
हम ढ़ूँढ रहे हैं
नाना के गाँव की बहती नदी
पिता के धुले हुए एक जोड़ी कपडे
आसमान को मुँह चिढाता टेढ़ा एंटीना
दुनियां -जहां की खैरियत बांचता वाक्य
अत्र कुशलम् तत्रास्तु

आज एक नई दुनियां
हमारे सामने
हमारे समय को चिढ़ा रही है
और
किसी को यकीन नहीं हो रहा

रास बिहारी गौड़

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