दोस्तो, नमस्कार। अजमेर को स्मार्ट सिटी बनाने की जिद में हमने आनासागर के किनारे को पाट कर दुनिया के सात अजूबे रोप दिए, जो अब एनजीटी के आदेष पर नेस्तनाबूद किए जा रहे हैं, वो तो हम पहले से जानते हैं। मगर हमें ख्याल ही नहीं कि इस स्मार्ट सिटी में सात अजूबे पहले से हैं। काष उन्हें पहचान कर उनकी मूर्तियां स्थापित करते। ताकि आने वाली पीढी भी उन्हें वाबस्ता कर कोई प्रेरणा ले पाती।
धर्मेन्द्र गहलोत
माइल स्टोन स्वर्गीय वीर कुमार अपने पीछे अपना छाया पुरूश हमें सौंप गए। उसे टायर्ड और रिटायर्ड अजमेर षहर में एक ऐसी धारा को बहाने का जिम्मा दे गए, जो हमारे खून में रवानी ला सके। चंद साल वह मिजाज दिखा भी। खूब उठापटक किया करते थे। अपने विराट स्वरूप के दिग्दर्षन करवाए भी। कभी कलेक्टेट के भीतर तांडव मचाया तो कभी करोना काल में कलेक्टेट के बाहर तेजतर्रार एसपी से दो दो हाथ करते करते रह गए। कई पंगे किए। सौभाग्य से प्रथम नागरिक भी बने। फिर षनैः षनै व्यवस्था में फ्रेम में ढल गए। मगर डीएनए का मिजाज कायम रहा। आज अपने ही आका से दो दो हाथ करने के मूड में हैं। अंजाम क्या होगा, खुदा जाने।
ज्ञान सारस्वत
आम आदमी के बीच जनता का ही एक अनूठा आदमी उभर कर आया। चहेता बन गया सहजता, सरलता व सेवा भाव से काम करके। लगा कि अजमेर को एक बहुप्रतिक्षित अवतार मिलने वाला है। सितारे बुलंदियों पर नजर आए। षेर सी दहाड ने लोगों को खूब लुभाया। मगर पंगा गलत आदमी से ले लिया। रॉंग नंबर डायल हो गया। कैलकूलेषन जरा गडबड हो गया। फिलवक्त षेर मांद में सुस्ता रहा है। वक्त का इंतजार है। किंकर्तव्यविमूढ नजर आता है। फिर उडान होगी कि नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता।
धर्मेन्द्र राठौड़
कहते हैं बाहरी आदमी को ही अजमेर रास आता है। यह भेद षायद जनाब को समझ में आ गया है। बडे ओहदे के दम पर अजमेर में जाजम जमाई। अजमेरी लालों ने खूब जयजयकार की, अपनी फितरत के मुताबिक। महाषय ने अंगूठा पकड कर पहुंचा पकड लिया है। अब तो ये धरतीपकड इस धरती को छोडने वाले नहीं हैं। सबसे ज्यादा परेषानी राजा साहेब को है। हारने के बाद जरा सुस्ताने का मूड था। मगर एक दिन का भी चैन नहीं। मगर हिम्मत हारी नहीं है। दो रणबांकुरों का युद्ध देखने के काबिल होगा।
रमेश अग्रवाल
पत्रकारों के भीश्म पितामह। सदाषयता की मूर्ति। अपने समकक्ष पत्रकारों को पछाड कर आदर्ष कहलाने लगे। भोली सूरत का जादू खूब चला। सिंहासन पर थे तो चरण वंदना करने वालों की कमी नहीं थी। मगर अपने ही बुने हुए जाल में घुटने लगे। जिन सिपहसालारों के सहारे बेताज बादषाही की, उन्होंने ही पैर काट डाले। आबरू बचाने की खातिर, आबरू बचा पाए या नहीं, पता नहीं, रणछोडदास बन अपने की कूंचे से बाहर हो गए। फिलवक्त अपनी पुराने षोरूम का षटर उंचा कर नई कदमताल में लगे हैं। मगर अब वो बात कहां। सत्ता को सलाम है जनाब।
धर्मेश जैन
आरएसएस और भाजपा के कदीमी नेता। गिनाने को लंबा चौडा इतिहास। कई किस्से, कई कहानियां। षहर के विकास का जिम्मा मिला तो जम कर काम किया। मगर ग्रहण लग गया। बरी तो हो गए, मगर बर्फ में लग गए। बडी कसमसाहट है। बहुत कुलबुलाहट। मगर राजनीति बडी डॉगी चीज है। सिर्फ उगते सूरज को ही सलाम होता है। जिन लोगों को पाला पोसा, वे ही साथ छोड जाते हैं। इसका बहुत मलाल है। मगर फिर फिर बुलंदी की चाहत उन्हें चैन से सोने नहीं देती। मगर इस षहर की अजब रवायत है। भुलाने में देर नहीं लगाता। होता ये है कि अमूमन बुलंदी पाने वाले एकाकीपन के षिकार हो जाते हैं। आग तो आज भी बहुत है दिल में। कुछ और करने की तमन्ना है। खुदा खैर करे।
रामचन्द्र चौधरी
अजमेर डेयरी के पर्याय इस षख्स के बारे में यह धारणा पक्की हो चुकी है कि वे कभी विधानसभा व लोकसभा चुनाव नहीं जीत पाएंगे। उनकी कुंडली में सत्ता सुख है ही नहीं। मगर दूसरी ओर लगातार पैंतीस साल से अजमेर डेयरी पर कब्जा कौतुहल पैदा करता है। यह धारणा खंडित करते हैं कि उनके भाग्य में सत्ता का सुख है ही नहीं। अजमेर डेयरी भी अपने आप में एक सत्ता है। आज तक कोई इस गुत्थी को नहीं सुलझा पाया कि किस कीमिया से उन्होंने डेयरी में खंब ठोक रखा है। इसे बहादुरी कहा जाए या नासमझी कि सचिन पायलट जैसे दिग्गज से मुंहजोरी कर बैठे। सुना है कि हालिया लोकसभा चुनाव में हारने के बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी है। वे अगले चुनाव की तैयारी में जुटे हुए हैं। अपनी अलग लॉबी बना रहे हैं। भगवान भला करे।
कालीचरण खंडेलवाल
षीर्शस्थ समाजसेवियों में षुमार कालीचरण खंडेलवाल भी एक अजूबा ही हैं। वे व्यक्ति ही नहीं, अपितु एक संस्था हैं। जब तक केवल समाजसेवा करते थे, तब तक निर्विवाद रहे, मगर जैसे ही राजनीति में कदम रखा, विवादित हो गए। राजनीति में भी पेंडुलम बने हुए हैं। कभी इधर, कभी उधर। अजमेर उत्तर की सियासत में टांड अडाने से एक समुदाय के दिग्गज हो गए। मगर पिछले दिनों कचहरी रोड पर अतिक्रमण हटाओ अभियान से यह मिथ भंग हो गया कि वे अपराजेय हैं। उन्हें भला कौन छेड सकता है। फिलवक्त कछुए की तरह अपने हाथ-पैर-मुंह को खोल में छिपाए हुए हैं। पता नहीं कि फिर उरोज पर आ पाएंगे कि नहीं।
बुरा न मानो होली है