दोस्तो, नमस्कार। जब भी हम कोई संकल्प करते हैं तो तत्काल दो या अधिक विकल्प उत्पन्न हो जाते हैं। हम अपनी पसंद के अनुसार उसमें से एक चुनते हैं और उसे पूरा करने का जतन करते हैं, लेकिन होता वह है तो प्रकृति चाहती है। वह कभी हमारे मन के अनुकूल और कभी प्रतिकूल। अनुकूल होता है तो हम प्रसन्न हो जाते हैं और जब प्रतिकूल होता है तो दुखी हो जाते हैं। विचारणीय है कि जब होना वह है तो प्रकृति चाहती है तो क्यों अपने विकल्प के लिए उर्जा व्यय करें। असल में होता ये है कि जब हम कोई विकल्प चुनते हैं और प्रकृति उसके विपरीत होती है तो एक द्ंवद्व उत्पन्न होता है। इससे न केवल हमारी उर्जा व्यर्थ जाया होती है, अपितु तनाव भी उत्पन्न होता है। अतः जैसे ही हमें यह प्रतीत हो कि प्रकृति हमारे विकल्प के अनुकूल नहीं है, या प्रकृति सहयोग नहीं कर रही तो तुरंत समर्पण कर देना ही श्रेयस्कर है। प्रकृति पर ही छोड देना चाहिए कि वह जो चाहे करे। इसी को कहते हैं-जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये। जैसे ही हम राम पर छोडते हैं, द्वंद्व खत्म हो जाता है। वैसे भी प्रकृति वह करती है, जो हमारे लिए उपयुक्त है, उचित है, चाहे बुरा या भला। उसके प्रति स्वीकार भाव होना चाहिए। प्रकृति को बेहतर पता है कि होना क्या चाहिए? भले ही वह हमें अच्छा न लगे, मगर उसी में हमारी भलाई निहित होती है। इसे यूं समझ सकते हैं। जैसे हमने कोई काम आरंभ किया और उसमें बाधा आ गई, समझ जाना चाहिए कि प्रकृति सहयोग नहीं कर रही। तो दूसरा विकल्प चुन का प्रकृति पर छोड देना चाहिए। कदाचित कुछ लोग यह सोच सकते हैं कि बाधा आने पर पुनः पुनः प्रयास करना चाहिए, यही हमें सिखाया गया है, मगर अंदर का सच यह है कि हमारे लिए ठीक नहीं है। कदाचित पुनः पुनः प्रयास करने से सफलता हासिल हो भी गई तो आप पाएंगे कि वह हमारे लिए उपयुक्त नहीं है।
