माता-पिता और संतान के संबंधों की संस्कृति को जीवंतता दें

विश्व माता-पिता दिवसः 1 जून 2025

विश्व के अधिकतर देशों की संस्कृति में माता-पिता का रिश्ता सबसे बड़ा एवं प्रगाढ़ माना गया है। भारत में तो इन्हें ईश्वर का रूप माना गया है। माता-पिता को उनके बच्चों के लिए किए गए उनके काम, बच्चों के प्रति उनकी निस्वार्थ प्रतिबद्धता और इस रिश्ते को पोषित करने के लिए उनके आजीवन त्याग के लिए सम्मान और सराहना देने के लिए प्रतिवर्ष विश्व माता-पिता (अभिभावक) दिवस 1 जून को मनाया जाता है। यह संयुक्त राष्ट्र (यूएन) का पालन दिवस है। यह दिन हमें परिवारों के विकास में माता-पिता और उनके जैसे लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका की सराहना करने का अवसर प्रदान करता है। 2025 के लिए थीम है ‘माता-पिता का पालन-पोषण’। यह थीम माता-पिता के रूप में पालन-पोषण को एक महत्वपूर्ण कौशल के रूप में मान्यता देती है और हमें माता-पिता के रूप में बच्चों के विकास और कल्याण के लिए उनकी महत्वपूर्ण भूमिका पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रेरित करती है। अधिकांश देशों में सदियों से माता-पिता का सम्मान करने की परंपरा रही है। माता-पिता ईश्वर का सबसे अच्छा उपहार हैं। जीवन में कोई भी माता-पिता की जगह नहीं ले सकता। वे सच्चे शुभचिंतक हैं।
माता-पिता ही बच्चों की सुरक्षा, विकास व समृद्धि के बारे में सोचते हैं। बावजूद बच्चों द्वारा माता-पिता की लगातार उपेक्षा, दुर्व्यवहार एवं प्रताड़ना की स्थितियों बढ़ती जा रही है, जिन पर नियंत्रण के लिये यह दिवस मनाया जाता है। भारत में जहां कभी संतानें पिता के चेहरे में भगवान और मां के चरणों में स्वर्ग देखती थीं, आज उसी देश में संतानों के उपेक्षापूर्ण व्यवहार के कारण बड़ी संख्या में बुजुर्ग माता-पिता की स्थिति दयनीय होकर रह गई है। इस दिवस को मनाने की सार्थकता तभी है जब हम केवल भारत में ही नहीं है बल्कि विश्व में अभिभावकों के साथ होने वाले अन्याय, उपेक्षा और दुर्व्यवहार पर लगाम लगाने की भी है। प्रश्न है कि दुनिया में अभिभावक दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों हुई? क्यों अभिभावकों की उपेक्षा एवं प्रताड़ना की स्थितियां बनी हुई है? चिन्तन का महत्वपूर्ण पक्ष है कि अभिभावकों की उपेक्षा के इस गलत प्रवाह को कैसे रोके। क्योंकि सोच के गलत प्रवाह ने न केवल अभिभावकों का जीवन दुश्वार कर दिया है बल्कि आदमी-आदमी के बीच के भावात्मक फासलों को भी बढ़ा दिया है। विचारणीय है कि अगर आज हम माता-पिता का अपमान करते हैं, तो कल हमें भी अपमान सहना होगा। समाज का एक सच यह है कि जो आज जवान है उसे कल माता-पिता भी होना होगा और इस सच से कोई नहीं बच सकता। हमें समझना चाहिए कि माता-पिता परिवार एवं समाज की अमूल्य विरासत होते हैं। इन्हीं स्थितियों को देखते हुए 2007 में माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण विधेयक संसद में पारित किया गया है। इसमें माता-पिता के भरण-पोषण, वृद्धाश्रमों की स्थापना, चिकित्सा सुविधा की व्यवस्था और वरिष्ठ नागरिकों के जीवन और संपत्ति की सुरक्षा का प्रावधान किया गया है। लेकिन इन सब के बावजूद हमें अखबारों और समाचारों की सुर्खियों में माता-पिता की हत्या, लूटमार, उत्पीड़न एवं उपेक्षा की घटनाएं देखने को मिल ही जाती है।
विश्व में इस दिवस को मनाने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु सभी का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि वे अपने माता-पिता के योगदान को न भूलें और उनको अकेलेपन की कमी को महसूस न होने दें। हमारा भारत तो माता-पिता को भगवान के रूप में मानता है। इतिहास में अनेकों ऐसे उदाहरण है कि माता-पिता की आज्ञा से भगवान श्रीराम जैसे अवतारी पुरुषों ने राजपाट त्याग कर वनों में विचरण किया, मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार ने अपने अन्धे माता-पिता को काँवड़ में बैठाकर चारधाम की यात्रा कराई। फिर क्यों आधुनिक समाज में माता-पिता और उनकी संतान के बीच दूरियां बढ़ती जा रही है। आज के माता-पिता समाज-परिवार से कटे रहते हैं और सामान्यतः इस बात से सर्वाधिक दुःखी है कि जीवन का विशद अनुभव होने के बावजूद कोई उनकी राय न तो लेना चाहता है और न ही उनकी राय को महत्व देता है। समाज में अपनी एक तरह से अहमियत न समझे जाने के कारण हमारे माता-पिता दुःखी, उपेक्षित एवं त्रासद जीवन जीने को विवश है। माता-पिता को इस दुःख और कष्ट से छुटकारा दिलाना आज की सबसे बड़ी जरूरत है।
बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार किस सीमा तक, कितना, किस रूप में और कितनी बार होता है तथा इसके पीछे कारण क्या हैं, इस पर हुए शोध में पता चला कि 82 प्रतिशत पीड़ित बुजुर्ग अपने परिवार के सम्मान के चलते इसकी शिकायत नहीं करते। शोध के निष्कर्षों के अनुसार अभिभावकों पर होने वाले अत्याचार एवं दुर्व्यवहार की स्थितियां चिन्तनीय है। जिनमें परिजनों एवं विशेषतः बच्चों के हाथों बुजुर्ग अपमान (56 प्रतिशत), गाली-गलौच (49 प्रतिशत), उपेक्षा (33 प्रतिशत), आर्थिक शोषण (22 प्रतिशत) और शारीरिक उत्पीडऩ का शिकार (12 प्रतिशत) होते हैं और ऐसा करने वालों में बहुओं (34 प्रतिशत) की अपेक्षा बेटों (52 प्रतिशत) की संख्या अधिक है जबकि पिछले सर्वेक्षणों में बहुओं की संख्या अधिक पाई गयी है। प्रौद्योगिकी ने भी बुजुर्गों की उपेक्षा और उनसे दुर्व्यवहार में अपना योगदान दिया है और संतानें अपने माता-पिता की अपेक्षा मोबाइल फोन और कम्प्यूटरों को अधिक तवज्जो देती हैं। इसका बुजुर्गों के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
अभिभावकों को लेकर जो गंभीर समस्याएं आज पैदा हुई हैं, वह अचानक ही नहीं हुई, बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति तथा महानगरीय अधुनातन बोध के तहत बदलते सामाजिक मूल्यों, नई पीढ़ी की सोच में परिवर्तन आने, महंगाई के बढ़ने और व्यक्ति के अपने बच्चों और पत्नी तक सीमित हो जाने की प्रवृत्ति के कारण बड़े-बूढ़ों के लिए अनेक समस्याएं आ खड़ी हुई हैं। अभिभावकों के लिये भी यह जरूरी है कि वे वार्धक्य को ओढ़े नहीं, बल्कि जीएं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दूरदर्शी नारे “सबका साथ, सबका विकास एवं सबका विश्वास’’ की गूंज और भावना अभिभावकों के जीवन में उजाला बने, तभी नया भारत निर्मित होगा। मानवीय रिश्तों में दुनिया में माता-पिता और संतान का रिश्ता अनुपम है, संवेदनाभरा है। माता-पिता हर संतान के लिए एक प्रेरणा हैं, एक प्रकाश हैं और संभावनाओं के पुंज हैं। हर माता-पिता अपनी संतान की निषेधात्मक और दुष्प्रवृत्तियों को समाप्त करके नया जीवन प्रदान करते हैं। माता-पिता की प्रेरणाएं संतान को मानसिक प्रसन्नता और परम शांति देती है। जैसे औषधि दुख, दर्द और पीड़ा का हरण करती है, वैसे ही माता-पिता शिव पार्वती की भांति पुत्र के सारे अवसाद और दुखों का हरण करते हैं।
माता पिता ही है जो हमें सच्चे दिल से प्यार करते हैं बाकी इस दुनिया में सब नाते रिश्तेदार झुठे होते हैं। पता नहीं क्यों हमे हमारे पिता इतना प्यार करते हैं, दुनिया के बैंक खाली हो जाते हैं मगर पिता की जेब हमेशा हमारे लिए भरी रहती हैं। पता नहीं जरूरत के समय न होते हुए उनके पास अपने बच्चों के लिये कहां से पैसे आ जाते हैं। भगवान के रूप में माता-पिता हमें एक सौगात हैं जिनकी हमें सेवा करनी चाहिए और कभी उनका दिल नहीं तोडना चाहिए। एक बच्चे को बड़ा और सभ्य बनाने में उसके पिता का योगदान कम करके नहीं आंका जा सकता। मां का रिश्ता सबसे गहरा एवं पवित्र माना गया है, लेकिन बच्चे को जब कोई खरोंच लग जाती है तो जितना दर्द एक मां महसूस करती है, वही दर्द एक पिता भी महसूस करते हैं। पिता कठोर इसलिये होते हैं ताकि बेटा उन्हें देख कर जीवन की समस्याओं से लड़ने का पाठ सीखे, सख्त एवं निडर बनकर जिंदगी की तकलीफों का सामना करने में सक्षम हो। माँ ममता का सागर है पर पिता उसका किनारा है। माँ से ही बनता घर है पर पिता घर का सहारा है। माँ से स्वर्ग है माँ से बैकुंठ, माँ से ही चारों धाम है पर इन सब का द्वार तो पिता ही है। आधुनिक समाज में माता-पिता और उनकी संतान के संबंधों की संस्कृति को जीवंत बनाने की अपेक्षा है। प्रेषकः

(ललित गर्ग)
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
ई-253, सरस्वती कंुज अपार्टमेंट
25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92 फोनः 22727486, 9811051133

Leave a Comment

This site is protected by reCAPTCHA and the Google Privacy Policy and Terms of Service apply.

error: Content is protected !!