पुष्कर मेले की “बात” निराली

*मिट्टी के धोरों के बीच देसी और विदेशी महिलाओं की मन को लुभावने वाली रस्साकस्सी व मटकी दौड़*

*सुशील चौहान*-
अजमेर( पुष्कर से) राजस्थान यूं तो मेलों का प्रदेश है। लेकिन मेलों में *मेला पुष्कर मेला*। साल में एक बार ही लगता है लेकिन क्या प्रदेश और क्या देश। विदेशी भी इसकी *राह तकते* है। कब पुष्कर मेला भरे ओर कब पहुँचे। वैसे मैं अज़मेर का मूल निवासी हूं, लेकिन समय,काल, परिस्थितियों ने मुझे भीलवाड़ा बुला लिया। जो प्यार और सम्मान मुझे अज़मेर में मिला वो ही सम्मान मुझे भीलवाड़ा के सभी वर्ग ने दिया। मैं उनका शुक्रगुजार हूं।जो मुझे एक नई पहचान दी। मैं बात पुष्कर मेले की कर रहा था। लगभग *बीस बरस बाद* इस बार मुझे भी सौभाग्य मिला है, पुष्कर मेले के आयोजन का *साक्षी* होने का। क्या नज़ारा, क्या भव्यता ओर कितनी आत्मीयता।

सुशील चौहान
रेतीले धोरों के बीच भागते ऊंट और उस सवार ग्रामीण और विदेशी सैलानी। क्या आनन्द देता हैं। जो पांच दिवसीय पुष्कर मेले को एक यादगार बनता हैं। जब मेला प्रांगण में देसी यानी ग्रामीण महिलाओं और सात समन्दर पार से आई विदेशी महिला सैलानी रस्साकस्सी में जोर आजमाईश करती तो ग्रामीण महिलाओं का हौंसला तो स्थानीय लोग बढ़ाते हैं तो वहीं प्रशासनिक अमला भी *पधारों म्हारा देश* का संदेश देते हुए विदेशी सैलानियों का जोश बढ़ाते हैं। आखिर गांव की मिट्टी में पली महिलाएं जीत हासिल करती हैं तो पुष्कर मेला परवान पर पहुंच जाता हैं। यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता जब शुरू होती देसी और विदेशी महिलाओं के बीच मटका दौड़ प्रतियोगिता। जी हां बालू मिट्टी के धोरों पर जब ग्रामीण महिलाएं घाघरे और लुगड़ी तथा विदेशी महिलाएं जींस,टावजर,टी शर्ट पहन पानी से भरे मटके को सिर पर रख कर भागती हैं तो पीछे आयोजक लाठी लेकर मटकियां फोड़ते हैं तो वो लम्हें यादगार बन जाते है।
मेलें में चारों ओर डीजे पर बजते राजस्थानी लोकगीत माहौल को संगीत मय बनाती हैं राजस्थान का प्रसिद्ध *कालबेलिया नृत्य* भी लोगों के मन को लुभाता हैं। विदेशी सैलानी होटलों में इन राजस्थानी लोकगीतों का आनन्द लेते हैं वहीं शानदार नृत्यों की प्रस्तुतियों को अपने कैमरे में कैद करते।
पांच दिवसीय पुष्कर मेला देवउठनी एकादशी से शुरू होने वाले पुष्कर मेले का समापन पूर्णिमा पर पुष्कर सरोवर में पवित्र स्नान के साथ सम्पन्न होता हैं। समापन समारोह में घोडों पर पुलिस कर्मी अपना प्रदर्शन कर लोगों को रोमांचित कर देते हैं, लेकिन इस बार मेले में वो *राजस्थानी झलक* कम नजर आई। मेले की *धड़कन* पशु नजर नहीं आए।मेले की पहचान पशुओं से हैं।इसे *पशु मेले* के नाम से जाना जाता हैं। लोग अपने पशु जिनमें घोड़े,बैल, ऊंट आदि बिक्री के लिए लाते हैं।खूब बिक्री होती हैं।
दो साल जो कोरोना के कारण मेला नहीं भरा। इस बार पशुपालकों और व्यापारियों को उम्मीद थी कि मेला उनके लिए देन बनेगा।
लेकिन राज्य में गायों में फैले *लम्पी रोग* के कारण प्रशासन को पशु मेले का आयोजन बंद करना पड़ा।उस पर पूर्णिमा पर चन्द्रग्रहण होने से लोग कम आए।लम्पीऔर चन्द्र ग्रहण ने दो साल बाद भरने वाले मेले पर ग्रहण लगा दिया। इससे व्यापारी तो निराश हुए साथ पूर्णिमा पर पवित्र सरोवर में डुबकी लगाने वालों की तादाद भी कम रही। लोगों ने एक दिन पहले चौदस पर ही स्नान कर लिया और लौट गए।पूरे राजस्थान से लोग इस मेले में शिरकत करते हैं। खासतौर एक माह तक कार्तिक स्नान करने वाली विवाहित महिलाएं और युवतियां पांच दिन स्नान करने आती हैं। लेकिन चन्द्रग्रहण के कारण एक दिन पहले ही स्नान करके चली गई। ग्रहण के कारण मंदिरों के पट सुबह से शाम तक बंद रहने से *भारत में बना एक मात्र ब्रह्मा जी मंदिर* के दर्शन भी नहीं कर पाए।

– *स्वतंत्र पत्रकार*
– *पूर्व उप सम्पादक, राजस्थान पत्रिका, भीलवाड़ा*
– *वरिष्ठ उपाध्यक्ष,प्रेस क्लब, भीलवाड़ा*
*मोबाईल नं.9829303218*
– *sushil [email protected]*

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