नवकार कॉलोनी स्थित महावीर भवन में आयोजित धर्म सभा को संबोधित करते हुए पूज्य श्री सौम्यदर्शन मुनि जी महारासा ने फरमाया कि इस मन के रस बड़े विचित्र है ,यह मन दुख में ज्यादा रस लेता है ,किसी ने भोजन के लिए बुलाया और अच्छी मनवार करके 50 आइटम आपकी थाली में रखें मगर एक आइटम नहीं खिलाया, जो दूसरे सब लोगों को खिलाया,तो मन दुखी हो जाएगा कि मुझे एक आइटम क्यों नहीं खिलाया गया जबकि 50 आइटम और खिलाए गए उसकी खुशी का मन को ध्यान नहीं रहेगा। यह मन है जो कैसे भी करके अपने दुखी होने का उपाय खोज लेता है।
इसी के साथ मन का रस दुश्मनी में ज्यादा रहता है यह मन है कि जब कोई हमारे प्रतिकूल प्रवृत्ति करें तो वह उसको दुश्मन मानने लग जाता है उससे द्वेस्था करने लग जाता है कि अमुक ने मेरे साथ ऐसा किया है तो मौका आने दो मैं भी उसके साथ वैसा ही करूंगा ।यह भाव द्वेस्था का भाव ही तो है ।इसी के साथ यह मन दोष देखने में ज्यादा रस लेता है, यह परदोष को देखने में ज्यादा रुचि रखता है, व्यक्ति की दृष्टि गुणदृष्टि कम रहती है, मगर दूसरों की कमी ज्यादा जल्दी नजर आ जाती है ।
मनके गलत दिशा में रस लेने के भाव को घटाने के लिए और सही दिशा में प्रवृत्ति के लिए विचार करें कि बहुत सारी चीजें मुझे मिली है अगर एक चीज नहीं भी मिली है तो मैं उसको मागूंगा नहीं और अगर संबंधों को निभाने के लिए कम मनुहार भी की गई हो तो भी सोचे कि मैं तो जाऊंगा ही जाऊंगा ,क्योंकि मुझे संबंधों को निभाना है ।
और जब दोषों को देखने की बात आए तब विचार करें कि मैं अपने दोषों को देखने का प्रयास करूंगा अगर ऐसा हमारा प्रयास रहा तो मन का रस दुख से, दुश्मनी से और दोषों से दूर होगा क्योंकि इनमें रस लेने का परिणाम अशुभ और इसे दूर हटने से शुभ परिणाम और शुभ गति की प्राप्ति होगी ।अतः शुभ परिणामों को प्राप्त करने के लिए मन को अशुभ से हटाकर शुभ मै प्रवृत्ति कराने का प्रयास करना है अगर ऐसा प्रयास और पुरुषार्थ रहा तो यत्र तत्र सर्वत्र आनंद हीआनंद होगा।
धर्म सभा को श्री विराग दर्शन जी महारासा ने भी संबोधित किया। धर्म सभा का संचालन हंसराज नाबेडा ने किया।
पदम चंद जैन खटोड़
चतुर्मास संयोजक