सीईओ, एमडी बनना है तो अपनी जाति टटोलिए

विश्लेषकों का मानना है कि स्कूली स्तर पर बेहतर शिक्षा देने से ही निचली जातियों का उत्थान हो सकता है

 

क्या भारतीय कॉरपोरेट बोर्डरूम में जाति के लिहाज़ से विविधता की कमी है?

इस बारे में नई शोध से कई दिलचस्प संकेत मिलते हैं.

कनाडा की नॉर्थन ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय के डी अजित, हान डोंकर और रवि सक्सेना ने 1,000 निजी और सरकारी शीर्ष भारतीय कंपनियों के बोर्ड सदस्यों का अध्ययन किया है.

वर्ष 2010 में मुंबई शेयर बाज़ार और नेशनल स्टॉक एक्सचैंज में सूचीबद्ध कुल कंपनियों की पूंजी का 80 प्रतिशत हिस्सा इन 1000 कंपनियों का था.

किसका बोलबाला?

भारत में आमतौर पर किसी व्यक्ति के कुलनाम या सरनेम से उसकी जाति या वर्ण का पता चल जाता है.

शोधकर्ताओं ने बोर्ड सदस्यों के कुलनाम के आधार पर शोधकर्ताओं ने उन्हें अगड़ी जाति, अन्य पिछड़ी जाति, ओबीसी, अनुसूचित जाति और जनजाति और विदेशी निदेशकों में बांटा.

इन सभी कंपनियों में औसतन नौ बोर्ड सदस्य थे जिनमें से 88 प्रतिशत “अंदर वाला व्यक्ति या इंसाइडर” थे और 12 प्रतिशत स्वतंत्र निदेशक थे.

भारत में कारोबार चलाने वाले पुरुष और महिलाओं को जाति के आधार पर बांटने से कई दिलचस्प तथ्य सामने आए जो कि पूरी तरह अनेपक्षित नहीं थे.

अध्ययन में पाया गया कि 93 प्रतिशत बोर्ड सदस्य अगड़ी जातियों से थे जबकि अन्य पिछड़ी जातियों से सिर्फ़ 3.8 प्रतिशत निदेशक ही थे.

साठ के दशक से आरक्षण नीति होने के बावजूद अनुसूचित जाति और जनजाति के निदेशक इस कड़ी में सबसे नीचे, 3.5 प्रतिशत ही थे.

शोधकर्ताओं के मुताबिक, “ये नतीजे दिखाते हैं कि भारतीय कॉरपोरेट जगत एक छोटी और सीमित दुनिया है. कॉरपोरेट जगत में सामाजिक संबंधों या नेटवर्किंग का बहुत महत्व है. भारतीय कॉरपोरेट बोर्डरूम अब भी योग्यता या अनुभव से ज़्यादा जाति के आधार पर काम करता है.”

शोधकर्ताओं को इस बात पर यक़ीन करने में मुश्किल होती है कि ओबीसी या अनुसूचित जाति और जनजातियों के सीमित प्रतिनिधित्व की वजह सिर्फ़ योग्यता की कमी हो सकती है.

‘जाति या योग्यता’

हमने लेखक और अनुभवी बिज़नेस सलाहकार गुरचरण दास को इन नतीजों के बारे में बताया.

उनका कहना था कि भारतीय कंपनियों के बोर्डरूम में ज़्यादा विविधता की ज़रूरत है.

लेकिन उन्होंने ये भी कहा कि वहां छोटी जातियों को बाहर रखने के लिए कोई “षडयंत्र” नहीं हो रहा था.

उनका कहना था, “मुझे एक भी ऐसा मामला याद नहीं आता जहां किसी बोर्ड की सदस्यता के लिए सिफ़ारिश करते समय उम्मीदवार की जाति की बात उठी हो. केवल योग्यता को ही महत्व दिया जाता है.”

जाति व्यवस्था की वक़ालत करने वाले लोग मानते हैं कि जाति और पारिवारिक संबंधों में विश्वास बढ़ता है जो किसी भी सफल कारोबार की आधारशिला होता है.

आज भी भारतीय समाज की नींव जाति और पारिवारिक निष्ठा पर आधारित है तो फिर व्यापार में ऐसा होने में हैरानी नहीं होनी चाहिए.

लेकिन आलोचकों के मुताबिक जाति व्यवस्था को बढ़ावा देने से भारत पिछड़ रहा है. साथ ही निजी कारोबार, लोगों की भर्ती में आरक्षण का कड़ा विरोध करते हैं क्योंकि वो मानते हैं कि आरक्षण से योग्यता पर असर पड़ता है.

‘नतीजों में बराबरी’

गुरचरण दास मानते हैं कि समय के साथ बदलाव आएगा. वो कहते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था का उदारीकरण हुए अभी सिर्फ़ 21 साल हुए हैं और इसलिए बोर्डरूम में सभी जातियों के सदस्यों का बराबर प्रतिनिधित्व होना थोड़ी जल्दबाज़ी होगी.

गुरचरण दास और उनकी तरह की सोच रखने वाले लोगों का मानना है कि भारत में निजी शिक्षा संस्थानों में आरक्षण को बढ़ावा देना चाहिए और “नतीजों में बराबरी की जगह अवसरों में बराबरी की कोशिश होनी चाहिए.”

गुरचरण दास की दलील की एक वजह है. अध्ययन दिखाते हैं विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों से समाज और अर्थव्यवस्थाएं समृद्ध होती हैं.

कहना मुश्किल है कि भारतीय कॉरपोरेट जगत में जातियों के इस असमान प्रतिनिधित्व से हमारी तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था पर कितना असर पड़ रहा है.

 

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