किशनगढ़ नगर परिषद बोर्ड : जरूरत है कार्यशैली में बदलाव की

राजकुमार शर्मा
राजकुमार शर्मा

-राजकुमार शर्मा- राजनीति की सिढ़ीयां चढऩे के लिए नये लोगों को काफी पापड़ बेलने पड़ते है। जिस प्रकार बॉलीवुड़ में सुर्खियों में आने के लिए अर्नगल प्रलाप किए जाते है उसी के अनुरूप आज की राजनीति में भी चर्चा में बने रहने के लिए जनप्रतिनिधी कुछ भी करने से परहेज नही रखते है। विधानसभा हो या निकाय उनके निर्वाचन मंडल में कुछ सदस्य ऐसे होते है जिनका सदैव यही मकसद रहता है हंगामा करो? ये हंगामा भी तभी करते है जब उनके सामने मीडिया हो। कैमरे की फ्लैस की चमक पड़ते ही ये और उत्साह के साथ हरकते करना शुरू कर देते है कि आमजन की चर्चा में आ जाये और उन्हे लगे की उनके जनप्रतिनिधी क्षेत्र की जन समस्या सदन में रखते है और जनता उनकी पीठ थपथपाये।
ऐसे ही कुछ हालात किशनगढ़ नगर परिषद बोर्ड के जनप्रतिनिधियों की है। बोर्ड में थाजपा समर्थित 30 व 5 मनोनित सदस्य है, फिर भी बोर्ड सभापति की हालत अल्पमत वाली बनी हुई है। जब से गुणमाला पाटनी सभापति निर्वाचित हुई है, तब से ही हालात अल्पमत वाले बने हंए है। जिसको पाटने के प्रयास प्रदेश स्तर तक के नेताओं ने भी कई बार किए है वही स्थानीय विधायक बोर्ड मिटींग से पूर्व पार्टी सदस्यों के साथ करते रहे है। लैकिन सभापति पाटनी के मंसूबे कुछ ओर है, जिन्हे सब जानते है।
सदन इसी लोकत्रंत का हिसा है। आबादी से चुने जाने वाले प्रतिनिधी सदन का निर्माण करते है। सदन के कामकाज, उस पर होने वाले खर्चो, उसके निर्णयों, सदन में बैठे जनप्रतिनिधियों का आचरण सब कुछ आम जनता के लिए महत्वपूर्ण होते है। इन मुद्दों पर सोचने-समझने का अधिकार केवल सदन के सदस्यों तक सीमित नही है। व्यवस्था का हर ऐक अंग किसी न किसी के प्रति उत्तरदायी है। हंगामों के कारण सदन में कामकाज नही हो पाना, उनका बार-बार स्थगित होना चिंता का कारण बनता जा रहा है। कई घंटों तक हो-हल्ला, शोर-शराबा वाली स्थिति से विकास कार्य तो प्रभावित होते ही नगर के विकास की गति भी रूक जाती है।
सदन में नियंत्रण की आवश्यकता अनिवार्यता बन चुकी है। लैकिन जब सभी अपने हित स्वार्थ की बातें करने लगे तो नियंत्रण करे कौन? जहां से सारा नगर विकास का संदेश पाता है। वहां से यदि हंगामें, अभद्रता, अशालिनता का संदेश जा रहा हो तो इनसे आम जनता क्या उम्मीद की जानी चाहिये! इन हंगामों से प्रेरणा लेने के उदाहरण तेजी से सड़क तक पहुंच रहे है जिससे कानून व्यवस्था का महत्व समाप्त सा होता जा रहा है।
तात्पर्य है कि सदन के इन दृश्यों से समाज ही नही कानून, संविधान के साथ-साथ परस्पर सम्मान, गंभीरता, विध-विधायी कार्य, नीति निर्माण भी बुरी तरह प्रभावित हो रहे है। इस मामले में सर्वोच्य पद पर बैठे व्यक्ति को अपने आप की कार्यशैली में सबसे पहले बदलाव लाना होगा तभी सदन की व्यवस्था को सुचारू रूप दे सकेगें।
आमजन को भी एक बार सदन तक पहुंचना होगा और यह देखे कि आप के द्वारा निर्वाचित जनप्रतिनिधी क्षेत्र के विकास पर कितना बोलते या अपने स्वार्थ के प्रति सदन में हंगामा बरपाते है।

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