स्कूली बच्चे केन्सर में

सिद्धार्थ जैन
सिद्धार्थ जैन
निजी स्कूलों में कभी-कभार अघौषित अभियान की शुरुआत होती हे। *केन्सर पीड़ितो के लिए सहायता राशि एकत्र करना ।* स्कूलों के पास बच्चों की फौज होती हे। हर अभिभावक अपने बच्चे के करियर को लेकर आमतौर पर स्कूल प्रबन्धन से दबा हुआ होता हे। उसी का फायदा उठाते इन स्कूली छात्र-छात्राओं को घर-घर जाकर पैसा जमा करने के लिए झोक दिया जाता हे। *अबौध बच्चो के लिए गुरूजी का आदेश सर्वोपरि होता हे।* वही अभिभावक भी किसी की सहायता के भावावेश में मूक दर्शक बन कर तमाशबीन बन जाते हे।

पिछले कुछ सालों में शहर की कोलोनियोन में यह सब देखने को मिल रहा हे। स्कूली बच्चे घर-घर दस्तक देते घूम रहे हे। उनसे बातचीत पर वे अबौध उचित व सन्तोषजनक जवाब देने में हड़बड़ाने लग जाते हे। सब एक दूसरे की ओर ताकते दिखते हे। ऐसे में एकाध बच्चा कहने की हिम्मत जुटाता हे कि *उनके “सर” ने यह कहते भेजा हे कि बच्चों इससे पुण्य मिलेगा।* बच्चे भले ही एक बार माँ-बाप का कहा टालने की हिम्मत कर जाए लेकिन क्या मझाल हे कि वे अबौध *सर* के आदेश से मुँह मोड़ ले…??

इन बच्चों को अपने दर पर आया देख कई परिवार पसीज भी जाते हे। वही कई ऐसे भी मिलते हे कि इन अबौधो पर सवालों की झड़ी लगा देते हे। कई डांट-फटकार लगाने से भी नही चूकते…!! *ऐसी बेकद्री अपने इन नौनिहालों की…!!!* आखिर बच्चे तो बच्चे ही हे। वो गुरु के आदेश से बंधे हुए स्वयं को बेबस समझते हे। ज्यादा तंग होने पर वे फूट भी जाते हे। दबे स्वर में बोलते भी हे कि ना-मालूम एकत्र राशि में से सर कितना रख ले…? यही नही प्यार से कुरेदने पर बच्चे यह तक बोल जाते हे कि *उनको कहा जाता हे कि जो टोली जितनी ज्यादा राशि एकत्र करेगी उसे उतना ही ज्यादा लाभ दिया जाएगा…!!!* अब यह लाभ हम किस शक्ल में माने…? *लाभ तो एक ही नजर आता हे…वह हे परीक्षा में नम्बरों का…।*

अब अभिभावक भी चेतने लगे हे। इसी का परिणाम हे कि शहर के एक नामी स्कूल के बच्चों को एकत्र हुई *राशि को घर-घर जाकर पुनः लौटानी पड़ी।* केन्सर को लाईलाज बीमारी मानी जाती हे। पहली स्टेज पर फिर भी कुछ कंट्रोल हो जाने के चांसेज रहते हे। इस बीमारी के ईलाज में परिजनों का बेतहाशा खर्चा होना आम बात होती हे। *मेरी पुख्ता जानकारी के मुताबिक़ डाक्टर मरीज से दवाई की वास्तविक कीमत से तीन गुणी से चार गुणी तक वसूल करते हे।* जो कि लाखों में बैठती हे। ऐसे में हम जरा विचार करे…। वे अबौध स्कूली बच्चे जो महज कुछ सेकड़ो रुपया ही एकत्र कर पा रहे हे…!!! क्या वह राशि किसी एक मरीज को भी राहत प्रदान कर सकेगी…?? *यहाँ यह भी गौर करने वाली बात हे कि जो अध्यापक यदा कदा खुद को सरकारी योजनाओं में लगाने का विरोध करते नही थकते…!!! वे ही इन बच्चों को ऐसे कैसे झोकने की जुर्रत कर रहे हे।* मेरा आग्रह हे कि प्राइवेट स्कूले बच्चों का इस तरह समय नष्ट नही करे। अभिभावकों का भी दायित्व हे कि वे बिना किसी दबाव में आये ऐसे स्कूलों की इन बेझा अभियानों पर कड़ी नजर रखे।
*094139 48333*
*सिद्धार्थ जैन पत्रकार, ब्यावर (राजस्थान)*

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