सिंधी क्यों नहीं हो सकता लोकसभा चुनाव का प्रत्याशी?

जिस सिंधी समाज को कांग्रेस ने लगातार तीसरी बार अजमेर उत्तर से विधानसभा का टिकट नहीं दिया, उसी की प्रतिनिधि संस्था सिंधु जागृति मंच ने हाल ही जब दोनों राजनीतिक दलों से सिंधी समाज के किसी व्यक्ति को लोकसभा का टिकट देने मांग की, तो सभी का चौंकना स्वाभाविक था। आम धारणा यही है कि अजमेर संसदीय क्षेत्र में सिंधी वोट बैंक इतना भी बड़ा भी नहीं कि उसे गंभीरता से लेते हुए टिकट दे दिया जाए। इस सिलसिले में जब मंच के समन्वयक हरी चंदनानी से पूछा गया कि आपकी मांग अथवा दावे का आधार क्या है तो वे बोले कि मांग हवा में नहीं की गई है।
उन्होंने बताया कि भाजपा ने अपना वोट बैंक होते हुए भी भले ही सिंधी को टिकट नहीं दिया हो, मगर कांग्रेस ने दो बार सिंधी पर दाव खेला है। सन् 1980 में कांग्रेस ने आचार्य भगवानदेव को टिकट दिया था और वे जीते भी। भगवान देव ने जनता पार्टी के श्रीकरण शारदा को 53 हजार 379 मतों से पराजित किया था। देव को 1 लाख 68 हजार 985 और शारदा को 1 लाख 25 हजार 606 मत मिले थे। इसके बाद 1996 में कांग्रेस ने किशन मोटवानी को टिकट दिया और वे मात्र 38 हजार 132 वोटों से पराजित हुए।
उन्होंने बताया कि छह लोकसभा चुनावों में, 1998 को छोड़ कर, पांच में रासासिंह रावत ने विजय पताका फहराई। कांग्रेस ने भी बदल-बदल कर जातीय कार्ड खेले, मगर वे कामयाब नहीं हो पाए। रावत के सामने सन् 1989 में सवा लाख गुर्जरों के दम पर उतरे बाबा गोविंद सिंह गुर्जर 1 लाख 8 हजार 89 वोटों से हारे। सन् 1991 में रावत ने डेढ़ लाख जाटों के दम पर उतरे जगदीप धनखड़ 25 हजार 343 वोटों से हराया। धनखड़ को 1 लाख 86 हजार 333 व रावत को 2 लाख 11 हजार 676 वोट मिले थे। सन् 1998 के मध्यावधि चुनाव में सोनिया गांधी के राजनीति में सक्रिय होने के साथ चली हल्की लहर पर सवार हो कर सियासी शतरंज की नौसिखिया खिलाड़ी प्रभा ठाकुर ने रासासिंह को लगातार चौथी बार लोकसभा में जाने रोक दिया था। हालांकि इस जीत का अंतर सिर्फ 5 हजार 772 मतों का रहा, लेकिन 1999 में आए बदलाव के साथ रासासिंह ने प्रभा ठाकुर को 87 हजार 674 मतों से पछाड़ कर बदला चुका दिया। इसके बाद 2004 में रासासिंह ने कांग्रेस के बाहरी प्रत्याशी हाजी हबीबुर्रहमान को 1 लाख 27 हजार 976 मतों के भारी अंतर से कुचल दिया। हबीबुर्रहमान को 1 लाख 86 हजार 812 व रावत को 3 लाख 14 हजार 788 वोट मिले थे। इस हिसाब से देखा जाए तो कांग्रेस के सिंधी प्रत्याशी का प्रदर्शन कमजोर नहीं रहा है, उलटे गुर्जर व मुसलमान की तुलना में काफी बेहतर रहा है। वह भी तब जब कि सिंधियों में आरएसएस का कट्टर समर्थक वर्ग कांग्रेस के साथ नहीं आया। तब काको आडवाणी, मामो मोटवाणी का नारा चला था। अर्थात आरएसएस ने यह कह कर सिंधी वोट बैंक को टूटने से बचाने की कोशिश की कि मामा की बजाय काका का साथ दो।
चंदनानी ने कहा कि भाजपा शायद एक तो इस कारण सिंधी को लोकसभा का प्रत्याशी नहीं बनाती कि वह हर बार अजमेर उत्तर से सिंधी को प्रत्याशी बनाती आई है, दूसरा ये कि उसे पता है कि सिंधी वोट बैंक तो उसकी जेब में है, चाहे किसी भी गैर सिंधी को टिकट दो, सिंधी तो भाजपा को ही वोट देगा। दूसरी ओर कांग्रेस के लिए किसी सिंधी को टिकट देने का प्रयोग मुफीद है, क्योंकि उसका सिंधी प्रत्याशी जितने भी सिंधी वोट खींच सकता है, उसका दुगुना नुकसान भाजपा को हो सकता है।
खैर, अपुन को लगता है कि भाजपा यूं तो किसी सिंधी को टिकट देने वाली है नहीं, फिर भी अगर मानस बना तो पूर्व शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी का नंबर आ सकता है। कदाचित इसमें देवनानी रुचि भी हो, क्योंकि वे लंबी छलांग लगाने के मूड में हैं। रहा सवाल कांग्रेस का तो पहला सवाल ही यही उठता है कि जब विधानसभा का टिकट ही नहीं दिया तो लोकसभा के टिकट की उम्मीद कैसे की जा सकती है। देखते हैं मंच की मांग पर दोनों पार्टियां गौर करती हैं या नहीं?

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