क्या कार्यकर्ताओं की निष्क्रियता से हारे झुनझुनवाला?

लोकसभा चुनाव परिणाम आए कुछ समय बीत चुका है, मगर आज तक किसी को समझ में नहीं आ रहा कि आखिर कांग्रेस के रिजू झुनझुनवाला चार लाख से भी ज्यादा वोटों से हारे कैसे? कांग्रेसी तो सन्न हैं ही, भाजपाई भी कम चकित नहीं हैं। यहां तक कि जनता भी सन्न है। जितनी बड़ी जीत हुई है, वैसा उत्साह कहीं नहीं झलक रहा। चारों ओर सन्नाटा सा पसरा है।
बेशक, कांग्रेस हारी है तो उसके कार्यकर्ता परिणामों को पलट-पलट कर देख रहे हैं कि आखिर इतनी बड़ी हार हो कैसे गई? अब तो सोशल मीडिया पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी शुरू हो गया है। कोई आत्म मंथन कर रहा है, तो कोई पैसा लेकर भी काम न करने का आरोप लगा रहा है। कोई भीतरघात की आशंका जता कर एक दूसरे को निपटाने में लगा है। यह स्वाभाविक भी है। जो पार्टी जीतती है, वह जश्न मनाती है और उसे जीत की समीक्षा की कोई जरूरत नहीं होती। दूसरी ओर जो पार्टी हारती है, उसमें हार की समीक्षा होती ही है। जिम्मेदारियां तय की जाती हैं। यही माना जाता है कि कहीं न कहीं कार्यकर्ताओं ने शिथिलता बरती होगी या फिर भीरतघात हुई होगी। स्वंतत्र लेखक भी मान रहे हैं कि हार की बड़ी वजह मोदी फैक्टर है, फिर भी मजे लेने के लिए लिख रहे हैं कि अब उन कांग्रेसियों का क्या होगा, जिन्होंने कभी सामूहिक भोज, तो कभी प्रचार के नाम पर रिजू का माल खाया।
कुल जमा सवाल ये है कि आखिर मतों का इतना बंपर अंतर आया कैसे? क्या कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने बिलकुल काम ही नहीं किया? क्या भाजपा कार्यकर्ताओं ने कुछ ज्यादा ही मेहतन कर ली? क्या भागीरथ चौधरी वाकई इतने लोकप्रिय हैं, जिन्हें विधानसभा चुनाव में किशनगढ़ से टिकट देने तक के लायक नहीं समझा गया? या रिजू बिलकुल ही बेकार व नकारा थे? जवाब आज तक किसी को समझ में नहीं आया। खुद भाजपाई भी चकित हैं कि इतनी बड़ी जीत हुई तो हुई कैसे? वे भी अधिक से अधिक एक लाख से कुछ ज्यादा से जीत की उम्मीद में थे। अति उत्साही भाजपाई दो लाख से जीतने के दावे कर कर रहे थे। जीत जब चार लाख से भी अधिक हुई तो उनका भी दिमाग घूम गया।
जरा चुनाव प्रचार की चर्चा कर लें। चौधरी जहां केवल व केवल मोदी के नाम पर ही वोट मांग रहे थे, वहीं रिजू जीतने पर सिर्फ और सिर्फ विकास करवाने पर जोर दे रहे थे। चूंकि उनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी, इस कारण राजनीति पर तो कुछ बोले ही नहीं। न भाजपा की आलोचना की और न ही चौधरी के बारे में कुछ कहा। उनके चेहरे की सहज मासूमियत लोगों को कुछ समझ में भी आ रही थी। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि उन्होंने चुनाव प्रचार में पैसे की कोई कमी नहीं रखी, जिसे कि हार की एक वजह माना जाए। रहा सवाल जातीय समीकरण का तो वह भी कोई एक तरफा नहीं था। बावजूद इसके अगर चार लाख का अंतर आया है तो एक बात तो पक्की है कि लोगों ने तथाकथित राष्ट्रवाद व मोदी ब्रांड के नाम पर वोट डाला है, जिसमें सारे समीकरण गड्ड मड्ड हो गए। इसमें न तो कांग्रेस कुछ कर पाई और न ही भाजपाइयों की मेहनत का चमत्मकार था। चूंकि कांग्रेस हार गई है, इस कारण कहा यही जाएगा कि कांग्रेसियों ने ठीक से काम नहीं किया और भाजपाई ये दावा करेंगे कि उन्होंने अपने-अपने इलाके में एडी चोटी का जोर लगा दिया था। इन सब तथ्यों के बाद भी आज तक इस सवाल का उत्तर किसी के पास नहीं है कि आखिर जीत चार लाख को पार कैसे कर गई? कम से कम लहर तो नहीं दिखाई दे रही थी। अलबत्ता अंडर करंट जरूर था, जिसका आकलन नहीं किया जा सका। कुछ लोग ईवीएम पर सवाल उठा सकते हैं, मगर चूंकि उसका कोई प्रमाण नहीं है, इस कारण लोकतांत्रिक व्यवस्था में आए इस परिणाम को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं है।
अकेले अजमेर की बात क्यों करें, पूरे राजस्थान की सभी सीटों पर बुरी तरह पराजय हुई है। क्या वहां भी कांग्रेसी घर जा कर बैठ गए थे? क्या सारे कांग्रेस प्रत्याशी कमजोर थे? क्या अमेठी में भी कार्यकर्ताओं ने अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष का साथ नहीं दिया?
लब्बोलुआब, अपना तो मानना है कि अगर हार छोटे से मार्जिन से होती तो वार्ड वार या विधानसभा वार पता लगाया जा सकता था कि किसने कोताही बरती। इतनी बुरी हार के लिए केवल कांग्रेस कार्यकर्ता पर तोहमत लगाना उचित नहीं होगा। किसी व्यक्ति विशेष को भी हार के लिए दोषी ठहराया नहीं जा सकता। यह सामूहिक हार है। हां, हारे हैं तो समीक्षा होनी चाहिए, हो भी रही है, मगर इसके नाम पर छीछालेदर करने का कोई अर्थ नहीं है। हार की एक वजह के रूप में कार्यकर्ता की शिथिलता को भले ही गिना जाए, मगर इतनी बुरी हार की बड़ी वजह दूसरी है। लोगों को एक नशा सा चढ़ा था, उसमें अगर कार्यकर्ता जोर लगा भी लेता, तो उसका कोई असर पडऩे वाला नहीं था। अलबत्ता कुछ हजार अधिक वोट जरूर हासिल किए जा सकते थे, मगर चार लाख के अंतर को तो नहीं पाटा जा सकता था। ये तो जनता का मूड था, जिस पर किसी का जोर नहीं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

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