हाल ही में मैने एक फेसबुक पेज व एक वेबसाइट के उस दावे की जानकारी दी थी, जिसमें दर्शाया गया है कि ख्वाजा साहब के ऑरीजिनल सज्जादानशीन तो पाकिस्तान में हैं, जबकि सच्चाई ये है कि महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती के वर्तमान सज्जादानशीन दरगाह दीवान सैयद जैनुल आबेदीन अली खान हैं और उन्होंने अपने पुत्र को अपना उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया है। इस पर कुछ प्रतिक्रियाएं आई हैं।
जनाब पीरजादा फिरोज ने फेसबुक पर जो प्रतिक्रिया दी है, उसे हूबहू देखिए:-
पाकिस्तान माइग्रेशन पर उनकी सिविल डेथ हो चुकी है, मतलब भारतीय संविधान और कानून के तहत मिलने वाले उनके समस्त अधिकार समाप्त। भारत में यह पद खाली हो गया था और इस पद पर ख्वाजा साहब के वंशज ही विराजमान होते हैं जो उनके पाकिस्तान चले जाने पर खानदान के अन्य व्यक्ति को हस्तानांतरित हो गया। मतलब कोई अमेरिका, पाकिस्तान, लंदन, या कहीं भी चला गया तो यह पद समाप्त नहीं होगा, एक शाख से दूसरी शाख में अर्थात एक भाई के दूसरे देश माइग्रेशन पर यह पद दूसरे भाई या उसके परिवार (खानदान) के अन्य सदस्यों को हस्तानांतरित हो जाएगा। मतलब पहली शर्त यह कि ख्वाजा साहब का वंशज हों, और दूसरी यह कि वह भारत का नागरिक हो। तभी वो इस पद पर पदासीन हो सकता है।
उनकी यह प्रतिक्रिया बिलकुल सटीक है। उनका यह तर्क अकाट्य है कि पाकिस्तान माइग्रेशन पर उनकी सिविल डेथ हो चुकी है, मतलब भारतीय संविधान और कानून के तहत मिलने वाले उनके समस्त अधिकार समाप्त हो चुके हैं।
कुछ अन्य ने मुझे फोन करके प्रतिक्रिया दी कि जो भी सज्जन पाकिस्तान में रह कर अपने आप को ख्वाजा साहेब का सज्जादानशीन जाहिर कर रहे हैं, उसके पीछे जो भी तर्क हो, मगर चूंकि ख्वाजा साहब की दरगाह अजमेर में है, और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तहत जनाब जेनुल आबेदीन अली साहब बतौर दीवान अपने कर्तव्यों को अंजाम दे रहे हैं, इस कारण सज्जादानशीन वे ही कहलाएंगे। ज्ञातव्य है कि कोर्ट ने दीवान को मान्यता उनके ख्वाजा साहब के निकटतम संबंधी होने के नाते ही दी है। भारतीय संविधान के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट का फैसला अंतिम है, उससे ऊपर कोई नहीं है। यदि कोई विदेश जा कर स्वयं को उत्तराधिकारी करार देता है तो उसका भारतीय संविधान व सुप्रीम कोर्ट के फैसले की रोशनी में कोई महत्व नहीं है।
कुल जमा प्रतिक्रियाओं का निष्कर्ष ये है कि उन्हें पाकिस्तान में रहने वाले सज्जन को सज्जादानशीन कहलाने पर ऐतराज है। उनका तर्क ये है कि यदि उनके पूर्वज सज्जादानशीन पद पर रहना चाहते थे, दीवान रह कर ख्वाजा साहब की दरगाह में जरूरी रसूमात अंजाम देना चाहते थे, तो उन्हें भारत में रहना चाहिए था, पाकिस्तान क्यों चले गए? पाकिस्तान जाने के साथ ही भारतीय संविधान के मुताबिक उनका दावा समाप्त हो गया था।
वस्तुत: यह मसला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाया जाना चाहिए था, मगर संभवत: ख्वाजा साहब की महानता और उनके प्रति करोड़ों लोगों की श्रद्धा को ख्याल में रख कर महत्वपूर्ण दीवान पद की गरिमा का ख्याल में रखते हुए व्यर्थ का विवाद आरंभ करने से बचा गया है, मगर इसका परिणाम ये है कि पाकिस्तान में ख्वाजा साहब के सज्जादानशीन होने का सम्मान पाया जा रहा है।
इस मसले के दो पहलु हो सकते हैं। एक धार्मिक आस्था और दूसरा कानून। किसी की भी धार्मिक आस्था का सम्मान किया जाना चाहिए, मगर कानून सबसे ऊपर है। यहां मैं यह साफ करना वाजिब समझता हूं कि ये मुद्दा उठाने के पीछे दीवान साहेब या खुद्दाम हजरात की शान में गुस्ताखी करना नहीं, बल्कि एक पहलु को सामने लाना मात्र था।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
[email protected]