अफसरशाही के आगे जनप्रतिनिधि इतने मजबूर क्यों?

तेजवानी गिरधर
पिछले दिनों स्वामी न्यूज फेसबुक लाइव में कांग्रेस व भाजपा के विभिन्न प्रमुख नेताओं से हुई बातचीत से एक बात खुल कर सामने आई है कि जनहित के लिए किए जा रहे विकास कार्यों में जनप्रतिनिधियों की ही नहीं चलती, सारे निर्णय प्रशासन ही करता है। विशेष रूप से ताजा तरीन स्मार्ट सिटी योजना में। जनप्रतिनिधियों की राय भले ही ली जाती हो, मगर होता वही है जो प्रशासन चाहता है। अर्थात जिला प्रशासन के आगे जनप्रतिनिधि मजबूर हैं। यह बात जनप्रतिनिधियों ने स्वयं स्वीकार की है कि प्रशासन मनमानी करता है। यह वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है। लोकतंत्र में लोक का प्रतिनिधित्व करने वाले ही कमजोर हैं तो इसका अर्थ ये है कि सिस्टम में कोई गड़बड़ी है।
सवाल उठता है कि आखिर जनप्रतिनिधि मजबूर क्यों हैं? इसकी एक वजह ये है कि जैसे ही सरकार बदलती है तो उसी के साथ नेताओं के प्रति प्रशासन का नजरिया बदल जाता है। लेकिन ऐसे भी उदाहरण हैं कि सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं को भी कई बार प्रशासन ने नहीं गांठा है। कुछ नेता मानते हैं कि ऐसा इस कारण भी है कि जनहित के कार्यों में दोनों राजनीतिक दलों के नेताओं में एकजुटता नहीं होती। एकराय न होने के कारण ही शासन-प्रशासन पर राजनीतिक दबाव कम हो जाता है और वह मनमानी करता है। यातायात की बेहद कष्टदायक समस्या के समाधान के लिए एलिवेटेड रोड बनाने की योजना इसी कारण लंबी खिंच गई कि सरकारें बदलने के साथ स्थानीय नेताओं की स्थिति भी बदल गई। कांग्रेस व भाजपा नेताओं की एकजुटता की बात तो फिर भी सपना है, मगर इसको लेकर भाजपा नेताओं तक में एकराय नहीं बनी। एक प्रमुख नेता सरकार पर मंजूरी का दबाव बनाए हुए थे तो दूसरे इसका विरोध करते रहे। वे आज भी सहमत नहीं हैं।
विकास योजनाओं की बात करें तो सीवरेज योजना का हश्र हम देख चुके हैं। कांग्रेस व भाजपा की सरकारें दो बार एक के बाद दूसरे की बनी, मगर आज तक वह ठीक से लागू नहीं पाई है। सात सौ छियांसीवें उर्स के मौके पर बनी छोटी सीवरेज योजना बेकार ही हो गई। स्मार्ट सिटी योजना का हाल भी किसी से छुपा हुआ नहीं है। प्रशासन अपने हिसाब से काम करवा रहा है और जनप्रतिनिधि अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। दोनों दलों के नेता एक स्वर से कह रहे हैं कि उनकी राय तो ली जाती है, मगर उस अमल नहीं किया जाता। कैसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि आजीवन अजमेर में रहने वाले नेताओं को स्थानीय समस्याओं व जरूरतों की गहरी समझ है, उनकी राय ताक पर रख दी जाती है, जबकि मात्र दो-तीन साल के लिए यहां पदस्थापित होने वाले अधिकारी ही अंतिम फैसला करते हैं, जिनका अजमेर से कोई लगाव नहीं होता।
प्रशासनिक कामकाज की समझ रखने वाले बुद्धिजीवी मानते हैं कि एक्जीक्यूशन का काम बेशक तकनीकी रूप से समृद्ध विभागीय अधिकारी ही करते हैं, मगर उन पर निगरानी के लिए जरूरी समझ जनप्रतिनिधियों को नहीं होती। वे तकनीकी अध्ययन करने की बजाय, राजनीतिक उलझनों व दाव-पेच में ही व्यस्त रहते हैं। इसी कारण अधिकारी उन पर हावी रहते हैं और मनमानी करते हैं। अगर जननेता विकास योजनाओं की बारीकियों का ठीक से अध्ययन करें तो क्या मजाल कि प्रशासन मनमानी कर जाए।
कमजोर राजनीतिक नेतृत्व का ही परिणाम है कि वर्षों से पानी की किल्लत झेल रहे अजमेर को बार-बार छला ही इसलिए गया कि दोनों दलों ने एकजुट हो कर दबाव नहीं बनाया। जब भाजपा की सरकार थी तो कांगे्रसी बोले, मगर भाजपाई पार्टी की मर्यादा में बंधे रहे और जब कांग्रेस सरकार रही तो भाजपाई तो चिल्लाए, मगर कांग्रेसियों ने चुप्पी साध ली। आज स्थिति ये है कि मूलरूप से अजमेर की प्यास बुझाने के लिए बनाई गई बीसलपुर परियोजना का लाभ जयपुर को दिया जाने लगा, जबकि अजमेर में अब भी नियमित व पर्याप्त जल सप्लाई नहीं हो पा रही। इसकी एक वजह ये भी है कि अपनी-अपनी सरकारों में यहां के मंत्री व विधायकों की स्थिति बौनी ही रही। वे सरकार का विरोध कर ही नहीं पाए। ज्ञातव्य है कि भूतपूर्व मंत्री स्वर्गीय प्रो. सांवरलाल जाट जैसे दबंग कहलाने वाले नेता के पास जलदाय महकमा होने के बावजूद, उनके कार्यकाल में ही सरकार ने बीसलपुर का पानी जयपुर को देने का फैसला कर दिया, मगर वे कुछ नहीं कर पाए। लब्बोलुआब परिणाम तो जनता ही भुगत रही है।
विद्युत वितरण का काम प्राइवेट कंपनी को सौंपे जाने का निर्णय भाजपा शासन काल में हुआ, तब कांग्रेसी तो खूब उबले, मगर भाजपाई मौन बने रहे। आज जब कांग्रेस सरकार है तो भाजपाई अनापशनाप बिल आने का विरोध कर रहे हैं, मगर कांग्रेसी आंदोलन करने की स्थिति में नहीं रहे। बहाना ये बनाया जा रहा है कि चूंकि बिजली कंपनी के साथ एमओयू पर साइन हो चुके हैं, इसलिए अब कुछ नहीं हो सकता। यह कारण वाजिब भी हो सकता है, मगर इसका मतलब ये तो नहीं कि बिजली कंपनी दो-तीन गुना बिलों के बारे में पारदर्शिता रखने में कोताही बरते। आज हालत ये है कि इस मसले पर आम जनता की सुनवाई करने वाला कोई नहीं है।

-तेजवानी गिरधर
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