अब जा कर चेते, की बैलों की सार-संभाल

देर आयद, दुरुस्त आयद। देर से ही सही अजमेर की सामाजिक व धार्मिक संस्थाओं ने रेलवे स्टेशन से पिछले दिनों झारखंड के लिए ले जाते छुड़ाए गए 64 बैलों को ऋषि उद्यान गोशाला में चारे-पानी और अन्य भोजन की व्यवस्था के लिए हाथ आगे बढ़ाए हैं। बेशक यह मीडिया का ही प्रयास है कि सामाजिक संगठनों के साथ बैलों को छुड़ाने वाले हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं को भी लगा कि केवल पशुओं को कत्लखाने जाने से रोकने अथवा छुड़वाना ही पर्याप्त नहीं है। उनकी सार संभाल भी की जानी चाहिए। सरकार की तो जिम्मेदारी है ही, मगर ऐसे काम में जनसहभागिता भी होनी ही चाहिए।
यहां ज्ञातव्य है कि पिछले दिनों झारखंड के लिए ले जाते छुड़ाए गए 64 बैल ऋषि उद्यान गोशाला के लिए बोझ बन गए तो गोशाला संचालक यतीन्द्र शास्त्री ने मुंह खोला। उधर जीआरपी सुपुर्दगीनामे पर बैलों को सुपुर्द करने के बाद उनकी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं थी। यह खबर जब दैनिक भास्कर व राजस्थान पत्रिका में छपी तो हलचल हुई। प्रशासन भी जागा तो सामाजिक संगठनों को भी ख्याल आया। अपुन ने भी इस कॉलम में सवाल उठाया कि क्या पशुओं को छुड़वा देने से ही कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है? जिन्होंने धर्म के नाम पर बैलों को कत्लखाने जाने से रोक कर वाहवाही ली, उन्होंने पलट कर यह भी नहीं देखा कि उन बैलों का क्या हुआ और बैल शास्त्री के गले पड़ गए। यदि ऐसा होता रहा तो भविष्य में कोई काहे को इस प्रकार सुपुर्दगी लेगा? गाय-बैलों को मुक्त करवाने वाले धर्म और नैतिकता के नाते उनके चारे-पानी की जिम्मेदारी क्यों नहीं लेते? जब धर्म के नाम पर अन्य कार्यों पर लाखों-करोड़ों रुपए खर्च होते हैं तो जानवरों की परवरिश क्यों नहीं की जाती? इस खबर पर एक फेसबुक मित्र को बहुत बुरा लगा कि हम तो रातें जाग कर पशुओं को बचाते हैं और आप घर बैठ कर रजाई में घुसे हुए सवाल उठा देते हैं। उन्हें अपुन ने यही जवाब दिया कि महाशय जिस प्रकार हिंदूवादी संगठन पशुओं को बचाने का काम करते हैं, ठीक इसी तरह मीडिया भी उनकी सार संभाल के लिए जनता व सरकार को जगाने का काम करती है। खैर, अब मीडिया की मुहिम रंग लाई है। जैन मिलन, अजमेर माहेश्वरी प्रगति संस्था और पार्षद ज्ञान सारस्वत के प्रयासों से चारे और गुड़ की व्यवस्था की गई है। बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद और शिवसेना के कार्यकर्ता भी बैलों की मदद के लिए पहुंचे। कुल मिला कर यह सुखद बात है कि अजमेर की संस्थाओं में सेवा का भाव है, बशर्ते कि उन्हें पता लगे कि कहां सेवा करने की जरूरत है। अंत भला, सो भला।
-तेजवानी गिरधर

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