-मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना के तहत गुमटीनुमा दुकानें बनाकर दीं, अब प्रशासन तोड़ रहा है
-उजाड़ने से पहले छोटे दुकानदारों को वैकल्पिक जगह देने की व्यवस्था क्यों नहीं की जा रही है
✍️प्रेम आनन्दकर, अजमेर।
👉मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना के लिए तहत सड़कों के किनारे गुमटीनुमा दुकानें बनाकर लोगों को आवंटित की गई थीं। अब उन्हीं दुकानों को यातायात में बाधा बताकर तोड़ा जा रहा है। इसमें कुछ ऐसे सवाल हैं, जो शासन-प्रशासन से जवाब मांगते हैं। यह गुमटीनुमा दुकानें सड़कों के किनारे क्यों बनाई गई थीं। तब क्या आंखों पर पट्टियां बंध गई थीं या बांध ली गई थीं। जब यह दुकानें बनाई गई थीं, तब भी यही कांग्रेस सरकार थी और यही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत थे। हालांकि मुख्यमंत्री और सरकार की सोच अच्छी और बेरोजगारों को रोजगार देने वाली थी। तब सरकार ने जिला प्रशासन को गुमटीनुमा दुकानें बनवाने का हुक्म दिया था। अब यह देखने का काम जिला प्रशासन का था कि दुकानें कहां बनाई जाएं। यानी स्थान का चयन प्रशासन को करना था, जो उसने किया भी था। किंतु तब यह क्यों नहीं देखा और सोचा था कि जो स्थान तय कर रहे हैं, उन पर गुमटियां बनाने और दुकानें चलने के बाद भविष्य में कभी यातायात व अन्य दिक्कतें आ सकती हैं। यह तो पहले से भी जगजाहिर था कि इतनी छोटी दुकानों में कोई भी धंधा आसानी से नहीं चल सकता है।
जाहिर है, सामान दुकान से बाहर भी रखा जाएगा। यदि कोई मैकेनिक या पंक्चर बनाने वाला है, तो बाहर ही काम करेगा। ऐसे में काफी दिक्कतें आएंगी। पहले तो जिला प्रशासन के तत्कालीन अफसरों ने ताबड़तोड़ में बिना देखे-सोचे-विचारे सरकार की शाबासी पाने के लिए सड़कों के किनारे दुकानें बनवा दीं। लॉटरी सिस्टम से दुकानें आवंटित कर दीं। अब उन्हीं दुकानों को यातायात में रोड़ा-बाधक बताकर या अन्य कारण गिनाते हुए तोड़ा जा रहा है। अब भी वही कांग्रेस सरकार और वही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हैं। तो क्या इसका मतलब यह लगाया जाए कि पहले सरकार के आदेश पर ही दुकानें बनवाई थीं और अब सरकार के आदेश पर ही इन्हें तोड़ा जा रहा है। अगर ऐसा है, तो सरकार को स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए और अगर ऐसा नहीं है, तो जिला प्रशासन या संबंधित महकमे-एजेंसी के अफसरों को तलब कर पूछा जाना चाहिए कि ऐसा क्यों किया जा रहा है। यदि दुकानें तोड़ कर दुकानदारों को उजाड़ने के आदेश सरकार ने नहीं दिए हैं, तो फिर सरकार को मनमानी-मनमर्जी करने वाले संबंधित अफसरों को नाप देना चाहिए। हो सकता है कि जिन लोगों को यह गुमटियां आवंटित की गई थीं, उनमें से कइयों ने या तो किराए पर दे दी हो या बेच दी हो। हो सकता है, खाली पड़ी गुमटियों पर अवैध कब्जे कर लिए गए हों। चाहे जो भी हो, यदि मूल आवंटियों ने किराए पर दे दी है या बेच दी है, तो उन्हें नोटिस दिए जाने चाहिए। गुमटियां आवंटित करने का मकसद बेचना और किराए पर देना कतई नहीं था, बल्कि खुद आवंटी को स्वरोजगार करना था। चलिए प्रशासन की कार्यवाही को जायज भी मान लेते हैं, लेकिन सवाल यह है कि जो लोग इन गुमटियों में रोजगार चलाकर अपना और परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं, उन्हें उजाड़ने से पहले वैकल्पिक स्थान मुहैया कराने की व्यवस्था क्यों नहीं की जा रही है। कुछ लोगों के कारण असल में धंधा कर जीवनयापन करने वालों को उजाड़ना कहां तक न्यायसंगत माना जा सकता है। हां, जिन लोगों ने अवैध कब्जे कर लिए हैं उन्हें बेदखल किया जाना चाहिए। शासन-प्रशासन जनता के लिए, जनता से ही है। जनता के विपरीत जाकर ना शासन चल सकता है और ना ही प्रशासन। इसलिए अजमेर के जिला प्रशासन को जनता को ही केंद्र बिंदु मानकर और आमजन के हितों को ही ध्यान में रखकर कार्यवाही करनी चाहिए। सुनो सरकार जी, जिसके पेट पर लात पड़ती है तो वो बिलबिलाता है, चीखता है, चिल्लाता है, रोता है। हर आमजन की आंखों के आंसू पौंछने का काम शासन-प्रशासन का है। इन गुमटियों में काम-धंधा करने वाले कोई लखपति-करोड़पति नहीं हैं। यह लोग “रोज कुआ खोदने, रोज पानी पीने” वाले हैं। जब यह रोज दो-तीन सौ रुपए कमाकर ले जाते हैं, तब इनके घर में चूल्हा जलता है। आपके हाथ में कानून भी है और डंडा भी है। कुछ भी कीजिए, लेकिन किसी के पेट पर लात मारकर नहीं।