राजनीति का प्रमुख कारक जातिवाद अजमेर संसदीय क्षेत्र में 1984 तक अपना खास असर नहीं डाल पाया था। अत्यल्प जातीय आधार के बावजूद यहां से मुकुट बिहारी लाल भार्गव तीन बार, विश्वेश्वर नाथ भार्गव दो बार व श्रीकरण शारदा एक बार जीत चुके हैं। आचार्य भगवान देव की जीत में सिंधी समुदाय और विष्णु मोदी की विजय में वणिक वर्ग की भूमिका जरूर गिनी जा सकती है। लेकिन सन् 1989 में डेढ़ लाख रावत वोटों को आधार बना कर रासासिंह को उतारा तो यहां का मिजाज ही बदल गया। कांग्रेस ने भी बदल-बदल कर जातीय कार्ड खेले मगर वे कामयाब नहीं हो पाए। रावत के सामने सन् 1989 में बाबा गोविंद सिंह गुर्जर, सन् 1991 में जगदीप धनखड़, सन् 1996 में किशन मोटवानी को उतारा गया, मगर वे हार गए। सन् 1998 के मध्यावधि चुनाव में प्रभा ठाकुर ने रासासिंह को लगातार चौथी बार लोकसभा में जाने रोक दिया। चारण-राजपूत वोट बैंक के सहारे। फिर 1999 में रासासिंह ने प्रभा ठाकुर को हरा दिया। सन् 2004 में रासासिंह ने कांग्रेस के हाजी हबीबुर्रहमान को हराया। सन् 2009 के चुनाव में इस सीट की तस्वीर जातीय लिहाज से बदल गई। जहां रावत बहुल मगरा क्षेत्र की ब्यावर सीट राजसमंद में चली गई तो दौसा संसदीय क्षेत्र की अनुसूचित जाति बहुल दूदू सीट यहां जोड़ दी गई है। कुछ गांवों की घट-बढ़ के साथ पुष्कर, नसीराबाद, किशनगढ़, अजमेर उत्तर, अजमेर दक्षिण, मसूदा व केकड़ी यथावत रहे, जबकि भिनाय सीट समाप्त हो गई। परिसीमन के साथ ही यहां का जातीय समीकरण बदल गया। रावत वोटों के कम होने के कारण समझें या फिर सचिन जैसे दिग्गज की वजह से, रासासिंह रावत का टिकट काट दिया गया और श्रीमती किरण माहेश्वरी को पटखनी दे कर गुर्जर नेता सचिन पायलट जीते तो यहां कांग्रेस का कब्जा हो गया। उसके बाद 2014 में एक तो मोदी लहर और दूसरा ढ़ाई लाख जाट वोटों के दम पर प्रो. सांवरलाल जाट ने विकास पुरुष माने जाने वाले पायलट को हरा दिया। प्रो. जाट के निधन के बाद 2018 में हुए उपचुनाव में हालांकि सहानुभूति वोट हासिल करने की गरज से भाजपा ने प्रो. जाट के पुत्र रामस्वरूप लांबा को मैदान में उतारा, मगर वे कांग्रेस के रघु शर्मा से हार गए। उसकी वजह ब्राम्हण वर्ग का लामबंद होना। इसके बाद 2019 में भाजपा ने फिर जाट कार्ड खेला, और वह चल गया। उन्होंने कांग्रेस के रिजू झुंझुनवाला को बुरी तरह से पराजित कर दिया। समझा जाता है कि आगामी चुनाव में भी जाट फैक्टर बना रहेगा।