एक जमाना था जब दूरदर्शन के कार्यक्रमों की भी साप्ताहिक समीक्षा हुआ करती थी। दैनिक नवज्योति में दूरदर्षन साप्ताहिक समीक्षा कॉलम में स्वर्गीय राजेन्द्र हाडा और दैनिक न्याय में दर्पण झूठ न बोले कॉलम के अंतर्गत गोविंद मनवानी समीक्षा किया करते थे। लोग बहुत रूचि के साथ उन्हें पढा करते थे। तब गिनती के धारावाहिक आया करते थे और अखबारों में उनकी समीक्षा का एक कॉलम हुआ करता था। इसी प्रकार जब भी कोई नई फिल्म आती तो उसकी समीक्षा छपा करती थी। उसी को देख कर दर्शक फिल्म देखने का मानस बनाया करते थे। इस मामले में महावीर सिंह चौहान, अशोक शर्मा, श्याम माथुर माथुर, गोविंद मनवानी, गजानन महतपुरकर अग्रणी थे, बाद में दैनिक भास्कर में अमित टंडन समीक्षा किया करते थे। फिल्मों के डिस्टिब्यूटर फिल्म को प्रमोट करने के लिए फिल्म समीक्षकों बुला कर फिल्म दिखाते थे। इस क्रम में नारायण माथुर जाना पहचाना नाम था। प्लाजा सिनेमा हॉल में मैनेजर सरवर सिद्दीकी और मृदंग सिनेमा हॉल में मुखी गोपालदास शामनानी फिल्म समीक्षकों की आवभगत किया करते थे।
यह वह दौर था, जब फिल्मों के बडे बडे हॉर्डिंग्स मुख्य चौराहों पर लगाए जाते थे। फिल्मी गानों की चौपडियां बिका करती थीं।
तब फिल्मों के विज्ञापन भी छपा करते थे। आजकल अखबारों में फिल्मी कॉलम तो होता है, मगर विज्ञापन नहीं होते, केवल फिल्म, सिनेमा हॉल और षो टाइम की जानकारी होती है। वक्त बदल गया है। बहुत कुछ बदल गया है। अब इतने सारे चैनल हैं, अनगिनत धारावाहिक हैं, जिनकी समीक्षा संभव ही नहीं है।
चलते चलते एक बात और। एक दौर ऐसा भी था, जब नई फिल्में होटलों या निजी हॉल में टीवी पर दस बीस दर्शकों को दिखाई जाती थीं। आज लोग मोबाइल पर ही सब कुछ देख लिया करते हैं।