हालांकि पार्शद ज्ञान सारस्वत की भाजपा में वापसी फिलवक्त नहीं हो पाई है, मगर उन्होंने वापसी के रास्ते बंद भी नहीं किए हैं। वे निश्कासन से होने वाली जलालत से बचना चाहते थे, इस कारण विधानसभा चुनाव में निर्दलीय मैदान में उतरने पर ईमानदारी का हवाला देते हुए पार्टी छोड दी। जानते थे कि विधानसभा चुनाव में पार्टी छोडने के बाद उनकी वापसी मुष्किल हो जाएगी। हालांकि लोकसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याषी भागीरथ चौधरी की इच्छा थी कि उन सहित जे के षर्मा, आनंद सिंह राजावत व सुभाश काबरा की पार्टी में वापसी हो जाए, मगर ऐसा वे करवा नहीं पाए। असल में उन्हें समझाया गया कि अगर इन चारों को पार्टी में नहीं लिया गया तो भी उनसे जुडा भाजपा का वोटर चौधरी को ही मिलेगा। तनिक निश्क्रिय हो सकता है, मगर कम से कम कांग्रेस में तो नहीं जाएगा। इन चारों ने भी अपनी ओर से ज्यादा कोषिष नहीं की, जानते थे कि पार्टी में ले भी लिया गया तो कोई पद या जिम्मेदारी तो मिलनी नहीं है। आप देखिए न, किषनगढ में निर्दलीय विधायक सुरेष टाक का क्या हुआ? उनको पार्टी में ले तो लिया गया, मगर चुनाव में उनको कोई खास तवज्जो नहीं मिली। खैर, बात चल रही थी सारस्वत की। उन्होंने निर्दलीय खडे होने पर भी यह साफ कर दिया था कि राश्टहित व सतातन के लिए वे मोदी के साथ हैं। यानि एक तो विचारधारा के साथ जुडे रहना चाहते थे, साथ ही अपना भविश्य भी सुरक्षित रखना चाहते थे। कहने की जरूरत नहीं है कि वे चुनावी राजनीति में कायम रहना चाहते हैं। आगामी विधानसभा चुनाव बहुत दूर हैं, मगर नगर निगम चुनाव में फिर सक्रिय भागीदारी निभाएंगे। वैसे उम्मीद तो यही है कि तब उन्हें पार्टी में ले लिया जाएगा, क्योंकि वे जिताउ माने जाते हैं। नहीं भी लिया गया तब भी निर्दलीय तो फिर से जीत कर आ ही जाएंगे। एक संभावना यह भी ख्याल में होगी कि आगामी विधानसभा में अजमेर षहर में तीन सीटें होनी है, तब एक सीट सिंधी के लिए अघोशित रूप से सुरक्षित रख दी गई तो दूसरी के लिए प्रबल दावेदार हो जाएंगे। कुल जमा बात ये कि भाजपा में वापसी की संभावना बरकरार रखने के लिए उन्होंने लोकसभा चुनाव में एक अपील की। सीधे तौर पर तो भाजपा या चौधरी को वोट देने का आग्रह तो नहीं की, मगर अप्रत्यक्ष रूप से पार्टी का साथ देते हुए लिखा कि मेरा वोट राश्टहित व सतातन के लिए मोदी के साथ। बस यही मोदी का नाम राम नाम की तरह उनको वैतरणी पार लगा देगा।