अन्ना-ममता फ्लॉप शो के निहितार्थ

anna hazare-निर्मल रानी- दिल्ली के रामलीला मैदान में गत् 12 मार्च को अन्ना हज़ारे के समर्थकों तथा ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित रैली पूरी तरह से एक फ्लॉप शो साबित हो कर रह गई। इस रैली में शिरकत करने वाले आम दिल्लीवासियों की तुलना में मीडिया कर्मियों, रैली आयोजकों तथा सुरक्षाकर्मियों की संख्या कहीं अधिक थी। इस रैली के पूरी तरह से असफल होने के बाद अब यह घटना चर्चा का विषय बन चुकी है। सवाल उठ रहे हैं कि अन्ना हज़ारे व ममता बैनर्जी को संयुक्त रूप से इस प्रकार की रैली आयोजित करने की ज़रूरत क्यों पड़ी? अन्ना हज़ारे का लक्ष्य क्या था? ममता बैनर्जी इस रैली के माध्यम से अपने कौन से हित साधने की फिराक़ में थीं तथा जनता द्वारा रैली को ठेंगा दिखाकर इन नेताओं की उम्मीदों व कोशिशों को पलीता क्यों लगाया गया? और यह नेता अथवा इस प्रकार की राजनीति करने वाले अन्य नेता भविष्य में क्या इस प्रकार के फ्लाप शो से कोई सबक सीखेंगे?
सर्वप्रथम राजनीति तथा राजनैतिक दलों के संबंध में अन्ना हज़ारे के विचारों को यदि हम देखें तो वे प्राय: यह कहते दिखाई दिए हैं कि हम किसी पक्ष अथवा पार्टी के समर्थक नहीं हैं। वे किसी पक्ष या पार्टी से जुडऩा नहीं चाहते तथा दलीय राजनीति नहीं करना चाहते। उन्होंने अपने इसी कथन का सहारा लेकर अपने घनिष्ठतम सहयोगी व गत् वर्ष के आंदोलन में उनके सेनापति की भूमिका अदा कर रहे अरविंद केजरीवाल का दिल्ली के चुनावों में खुलकर साथ देने से इंकार कर दिया। दिल्ली की जनता निश्चित तौर पर आज यह महसूस कर रही है कि यदि अन्ना हज़ारे अरविंद केजरीवाल व उनकी आम आदमी पार्टी के पक्ष में चुनाव प्रचार करते तो दिल्ली में आम आदमी पार्टी की बहुमत की सरकार बनती तथा अन्ना हज़ारे द्वारा अपने आंदोलन में उठाए जाने वाले जनलोकपाल सहित कई व्यवस्था परिवर्तन संबंधी मुद्दों का दिल्ली सरकार के स्तर पर समाधान हो गया होता। परंतु उस समय अन्ना हज़ारे ने अरविंद केजरीवाल को अपने गांव रालेगण सिद्धी में बैठकर मात्र आशीर्वाद व शुभकामनाएं देकर टरका दिया। परंतु अरविंद केजरीवाल के कदम आंदोलन के रास्ते पर चलते हुए इतने आगे निकल चुके थे कि उनके सामने सभी राजनैतिक दलों के नेताओं की राजनीति में आने की चुनौती को स्वीकार करने के सिवा और कोई दूसरा चारा नहीं बचा था। केजरीवाल व उनके सहयोगियों ने अन्ना हज़ारे को यह बात समझाने की बहुत कोशिश भी की। परंतु वे अपने इस निर्णय पर उस समय यह कहते हुए डटे रहे कि वे किसी पक्ष व पार्टी अथवा राजनैतिक दल के गठन के पक्ष में नहीं हैं।
फिर आखिर ऐसा क्या हो गया कि उन्हें ममता बैनर्जी में अरविंद केजरीवाल से अधिक योग्यता, विश्वास तथा संभावनाएं नज़र आने लगीं? कल तक पक्ष व पार्टी का विरोध करने वाले, उसका साथ न देने का डंका पीटने वाले अन्ना हज़ारे ममता बैनर्जी के समर्थन में आखिर क्यों और किन परिस्थितियों में खुलकर आ गए? उन्हें ममता बैनर्जी में अरविंद केजरीवाल से अधिक संभावनाएं क्यों नज़र आने लगीं? ज़ाहिर है अन्ना हज़ारे के प्रति गहन आस्था व विश्वास रखने वाली दिल्ली तथा आसपास के क्षेत्रों की वह जनता जिसने अन्ना हज़ारे के जनलोकपाल आंदोलन को ऐतिहासिक आंदोलन बना दिया था तथा उसी विशाल जनसमर्थन के कारण पूरे विश्व में अन्ना हज़ारे को भारत के एक परिवर्तनकारी व क्रांतिकारी नेता के रूप में देखा जाने लगा था। यहां तक कि उन्हें भारत का दूसरा गांधी तक कहा जाने लगा था। आज उसी अन्ना हज़ारे की रैली में दिल्ली वासियों ने अपनी हाजि़री लगाना क्यों ज़रूरी नहीं समझा? कई राजनैतिक विशेषक अन्ना हज़ारे व ममता बैनर्जी के इस नए गठबंधन को इस नज़रिए से भी देख रहे हैं कि अन्ना हज़ारे को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा अरविंद केजरीवाल की राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती लोकप्रियता व ताकत को नियंत्रित करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह तो शुरु से ही अन्ना हज़ारे व बाबा रामदेव जैसे तथाकथित निष्पक्ष नज़र आने वाले लोगों पर यह कहकर निशाना साधते रहे हैं कि यह संघ के इशारे पर काम करने वाले व्यक्ति हैं। आज अन्ना हज़ारे के प्रमुख सहयोगी दिखाई देने वाले पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह तथा पूर्व आईपीएस अधिकारी किरण बेदी जैसे लोगों का भारतीय जनता पार्टी की पंक्ति में खड़ा होना निश्चित रूप से दिग्विजय सिंह के कथन पर अपनी मोहर लगाता है। उधर बाबा रामदेव ने तो खुलकर नरेंद्र मोदी व भाजपा के साथ देने का एलान ही कर दिया है। ऐसे में सवाल यह है कि अन्ना हज़ारे व ममता बैनर्जी द्वारा बनाया गया यह नया-नवेला गठबंधन अरविंद केजरीवाल व उसकी आम आदमी पार्टी को कमज़ोर करने तथा पिछले दरवाज़े से भारतीय जनता पार्टी की सहायता करने का प्रयास नहीं तो और क्या है?
उधर ममता बैनर्जी भी दिल्ली में अन्ना हज़ारे के हज़ारों समर्थकों की मौजूदगी की उम्मीद के साथ रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री बनने की अपनी राष्ट्रीय राजनैतिक महत्वकांक्षा का बिगुल बजाने पहुंच गर्इं। परंतु दिल्ली की जनता ने उन्हें भी घास नहीं डाली। इस फ्लॉप शो के बाद अन्ना हज़ारे समर्थकों व तृणमूल कांग्रेस के लोगों के बीच इस बात को लेकर भी आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला कि आखिर यह रैली बुलाई किसने? तृणमूल कांग्रेस के नेताओं का कहना था कि यह अन्ना हज़ारे के समर्थकों की रैली थी जबकि अन्ना हज़ारे के समर्थक इसे तृणमूल कांग्रेस का आयोजन बता रहे थे। मैदान खाली होने की सूचना आने के बाद अन्ना हज़ारे ने बुखार के बहाने से रैली में शिरकत न करने में ही अपनी भलाई समझी। परंतु ममता बैनर्जी ने रैली में शिरकत करना इसलिए ज़रूरी समझा ताकि दिल्ली में तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का मनोबल न टूटने पाए। परंतु इसके बावजूद रैली की असफलता के बाद राष्ट्रीय स्तर पर जो संदेश ममता बैनर्जी की राष्ट्रीय राजनीति की महत्वकांक्षा से संबंधित गया है वह ममता बैनर्जी व उनकी पार्टी के लिए चिंता का विषय ज़रूर है। अन्ना हज़ारे का तो इस फलॉप रैली से कुछ भी नहीं बिगड़ा। क्योंकि वे पहले भी कम भीड़ होने की सूचना पर बीमार पड़ते रहे हैं। वैसे भी जो थोड़े-बहुत लोग रैली में शामिल हुए वे तृणमूल कांग्रेस के ही समर्थक थे। ममता बैनर्जी ने तो इस रैली की असफलता व अन्ना हज़ारे की अनुपस्थिति के संदर्भ में साफतौर पर यह भी चेता दिया कि तृणमूल कांग्रेस अपने अकेले दम पर चुनाव लड़ती रही है और भविष्य में भी लड़ती रहेगी।

निर्मल रानी
निर्मल रानी

कुल मिलाकर दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में अन्ना-ममता द्वारा अरविंद केजरीवाल को ललकारने के मकसद से किया गया आयोजन पूरी तरह असफल होने के बाद यह साबित हो गया कि देश की जनता बेहद जागरुक, समझदार तथा दूरदृष्टि रखने वाली है। खासतौर पर अब दिल्ली के लोग नेताओं के चाल, चरित्र व चेहरे को भलीभांति समझने लगे हैं। दिल्लीवासियों ने बड़ी उम्मीदों के साथ अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को 28 सीटों पर विजय दिलाई थी। निश्चित रूप से जनता राजनीति तथा भ्रष्ट व्यवस्था में परिवर्तन आते हुए देखना चाहती थी। परंतु मात्र चंद सीटों के चलते दिल्ली सरकार अपने सपनों को पूरा नहीं कर सकी। और यदि अन्ना हज़ारे जैसे केजरीवाल के पूर्व सहयोगियों को इसका जि़म्मेदार ठहराया जाए तो यह कहना गलत नहीं होगा। नि:संदेह दिल्ली के लोगों ने अन्ना हज़ारे को पीठ दिखाकर तथा ममता के साथ उनके सहयोगी के रूप में खड़े होने को नकार कर अपना स्पष्ट संदेश दे दिया है। यदि अन्ना हज़ारे किसी पक्ष या पार्टी का साथ न देने के अपने कथन पर अडिग रहते हुए ममता बैनर्जी के साथ न भी खड़े होते तो भी जनता की नज़रों में शायद उनकी कुछ इज़्ज़त बनी रहती। परंतु उन्होंने ममता बैनर्जी का साथ देने की घोषणा कर स्वयं को संदेह के घेरे में खड़ा कर दिया। देश जानता है कि राजनैतिक सुधार तथा व्यवस्था परिवर्तन जैसे व्यापक मुद्दों को लेकर अन्ना हज़ारे व केजरीवाल जिस हद तक एकमत हैं ममता बैनर्जी अन्ना हज़ारे के साथ उस स्तर तक एकमत नहीं हो सकतीं। क्योंकि आम आदमी पार्टी तो अन्ना हज़ारे के आंदोलन से ही अस्तित्व में आई है। यानी देश में जिस प्रकार का परिवर्तन अन्ना हज़ारे चाहते हैं अरविंद केजरीवाल भी वही चाहते हैं फिर आखिर अन्ना हज़ारे को पक्ष व पार्टी को सहयोग न देने और बाद में तृणमूल कांग्रेस को सहयोग दे देने की घोषणा जैसे ड्रामे की ज़रूरत ही क्या थी? आशा की जानी चाहिए कि केवल दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे देश की जनता इसी प्रकार अवसरवादी व गिरगिट की तरह अपना रंग बदलने वाले नेताओं, दलबदलुओं तथा विचारधाराओं का अपने निजी स्वार्थ के लिए सौदा करने वाले सभी मौकापरस्तों को 2014 के लोकसभा चुनावों में सबक ज़रूर सिखाएगी। ऐसे स्वार्थी व अवसरवादी नेताओं को भी चाहिए कि वे अन्ना ममता के फ्लाप शो के निहितार्थ को ज़रूर समझें।
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